क्षमावाणी पूजन



कवि मल्ल

(छप्पय)

अंग क्षमा जिन धर्म तनो दृढ मूल बखानो |

सम्यक रतन सम्भाल हृदय में निश्चय जानो ||

तज मिथ्या विष मूल और चित्त निर्मल ठानो |

जिनधर्मी सों प्रीत करो सब पातक भानो ||

रत्नत्रय गह भविक जन, जिन आज्ञा सम चलिए |

निश्चय कर आराधना, करम रास को जालिये ||

ॐ ह्रीं सम्यगरत्नत्रय! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाह्न्म |

ॐ ह्रीं सम्यगरत्नत्रय! अत्र तिष्ठ: ठ: ठ: स्थापनम |

ॐ ह्रीं सम्यगरत्नत्रय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम |

 

अष्टक

नीर सुगंध सुहावनो, पदम द्रह को लाय |

जन्म रोग निरवारिये, सम्यक रतन लहाय ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टांगसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध सम्यकचारित्राय 

रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्ताये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |

 

केसर चन्दन लिजिये, संग कपूर घसाय |

अलि पंकति आवत घनी, वास सुगंध सहाय ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा |

 

शालि अखंडित लीजिये, कंचन थाल भराय |

जिनपद पूजों भाव सौं, अक्षत पद को पाय ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ।

 

पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगंध गुलाब |

श्रीजिन चरण सरोज कूँ, पूज हर्ष चित भाव ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

शक्कर घृत सुरभि तना, व्यंजन षडरस स्वाद |

जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यम निर्वपामीति स्वाहा ।

 

हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार |

शोधित घृत कर पूजिए, मोह तिमिर निरवार ||

 क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान |

जिन चरणन ढिग खेइये, अष्ट कर्म की हान ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख |

अग्र धरो जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जल फल आदि मिलाय के, अरघ करो हरषाय |

दुःख-जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ||

क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय |

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यकदर्शनाय अष्टविधसम्यकज्ञानाय त्रयोदशविध

 सम्यकचारित्राय रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जयमाला

(दोहा)

उनतिस अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय |

मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर भव पाय ||

(चौपाई)

जैनधर्म में शंक न आने, सो नि:शंकित गुण चित ठानै |

जप तप कर फल वांछै नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस मांही ||1||

पर को देख गिलानि न आनै, सो तीजा सम्यक गुण ठानै |

आन देव को रंच न मानै, सो निर्मूढता गुण पहिचानै ||2||

पर को औगुण देख जु ढाकै, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे |

जैनधर्म तैं डिगता देखे, थापै बहुरि स्तिथि कर लेखे ||3||

जिन धरमी सों प्रीति निवहिये, गउ-बच्छवत वच्छल कहिये |

ज्यों त्यों करि उद्योग बढावै, सो प्रभावना अंग कहावै ||4||

अष्ट अंग ये पाले जोई, सम्यगदृष्टि कहिये सोई |

अब गुण आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ||5||

व्यंजन अक्षर सहित पढ़ीजै, व्यंजन व्यंजित अंग कहीजै |

अर्थ सहित शुद्ध शब्द उचारै, दूजा अर्थ समग्रह धारै ||6||

तदुभय तीजा अंग लखीजै, अक्षर अर्थ सहित जु पढ़ीजै |

चौथा कालाध्ययन विचारै, काल समय लखि सुमरण धारै ||7||

पंचम अंग उपधान बतावै, पाठ सहित तब बहु फल पावै |

षष्ठम विनय सुलब्धि सुनीजै, वाणी बहुत विनय सु पढ़ीजै ||8||

जापै पढ़े न लोपै जाई, अंग सप्तम गुरुवाद कहाई |

गुरु की बहुत विनय जु करीजै, सो अष्टम अंग धर सुख लीजै ||9||

यह आठों अंग ज्ञान बढ़ावै, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावै |

अब आगे चारित्र सुनीजै, तेरह विध धर शिव सुख लीजै ||10||

छहों काय की रक्षा कर है, सोई अहिंसा व्रत चित धर है |

हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ||11||

मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचोर्य व्रत चित धरिये |

मनमथ भय मन रंच न आनै, सो मुनि ब्रह्मचर्य व्रत ठानै ||12||

परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच महाव्रत धारक सोई |

महाव्रत ये पांचो सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ||13||

मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई |

वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचन गुप्ति सो मुनिवर राखैं ||14||

कायोत्सर्ग परिषह सहि हैं, ता मुनि काय गुप्ति जिन कहि हैं  |

पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ सहित भाखों जिनराई ||15||

हाथ चार जब भूमि निहारैं, तब मुनि ईर्यापथ पद धारैं |

मिष्ट वचन मुख बोलें सोई, भाषा समिति तास मुनि होई ||16||

भोजन छियालिसदूषण टारें, सो मुनि एषण शुद्धि विचारें |

देखिके पोथी ले अरु धर हैं, सो आदान निक्षेपण वर हैं ||17||

मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन अमिति संभारें |

यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधर ने गहे हैं ||18||

आठ-आठ-तेरह विधि जानो, दर्शन-ज्ञान-चरित्र सु ठानो |

तातैं शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ||19||

रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई |

चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा क्षमा हम उर में धारा ||20||

 

(दोहा)

यह क्षमावाणी आरती, पढे सुने जो कोय |

कहे मल्ल सरधा करो,मुक्ति श्री फल होय ||

 

ॐ ह्रीं नि:शंकितान्गाय निःकंकितांगाय निर्विचिकित्सातान्गाय निर्मूढ़तान्गाय उपगूहतान्गाय सुस्तिथिकरणान्गाय वात्सल्यान्गाय प्रभावनान्गाय सम्यगदर्शनाय म्हार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

ॐ ह्रीं व्यंजनव्यंजिताय अर्थसमग्राय तदुभयसमग्राय कालाध्ययनाय उपधानोपाहिताय विनयलब्धिप्रभावनाय 

गुर्वनिह्ववाय बहुमानोन्मानाय अष्टांगसम्यगज्ञानाय म्हार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

ॐ ह्रीं अहिंसामहाव्रताय सत्यमहाव्रताय अचौर्यमहाव्रताय ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अपरिग्रहमहाव्रताय मनोगुप्तये वचनगुप्तये कायगुप्तये ईर्यासमितये भाषासमितये एषणासमितये आदाननिक्षेपणसमितये प्रतिष्ठापनसमितये त्रयोदशविध सम्यकचारित्राय म्हार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

(सोरठा)

दोष न गहियो कोय, गुण गह पढिये भाव सों |

भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधिये ||

इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि क्षिपेत