पंच परमेष्ठी पूजा



कविश्री राजमल पवैया

अर्हन्त सिद्ध आचार्य नमन! हे उपाध्याय! हे साधु! नमन |

जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन ||

मन-वच-काया-पूर्वक करता हूँ, शुद्ध-हृदय से आह्वानन |

मम-हृदय विराजो! तिष्ठ! तिष्ठ! सन्निकट होहु मेरे भगवन ||

निज-आत्मतत्त्व की प्राप्ति-हेतु, ले अष्ट-द्रव्य करता पूजन |

तव चरणों के पूजन से प्रभु, निज-सिद्धरूप का हो दर्शन ||

ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)

ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)

ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)

 

मैं तो अनादि से रोगी हूँ, उपचार कराने आया हूँ |

तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ ||

मैं जन्म जरा मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।

 

संसार-ताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दु:ख पाए हैं |

निज शांत-स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाए हैं ||

शीतल चंदन है भेंट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।

 

दु:खमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही |

शुभ-अशुभ भाव की भँवरों में, चैतन्य शक्ति निज अटक रही ||

तंदुल हैं धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

 

मैं काम-व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किंचित् छाया |

चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, तुमको पाकर मन हरषाया ||

मैं कामभाव विध्वंस करूँ, ऐसा दो शील हृदय स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।

 

मैं क्षुधा-रोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ |

जग के सारे पदार्थ पाकर भी, तृप्त नहीं हो पाया हूँ ||

नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा-रोग मेटो स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

 

मोहांध महाअज्ञानी मैं, निज को पर का कर्त्ता माना |

मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्म-स्वरूप न पहचाना ||

मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहांधकार क्षय हो स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

 

कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल |

संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा सुरभि महके पल-पल ||

मैं धूप चढ़ाकर अब आठों- कर्मों का हनन करूँ स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।

 

निज-आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चिंतवन करूँ निज चेतन का |

दो श्रद्धा ज्ञान चारित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ||

उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी |

हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।

 

जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ |

अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ||

यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्यपद दो स्वामी |

हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी ||

ॐ ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।

 

जयमाला

(ज्ञानोदय छन्द)

जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज-ध्यान लीन गुणमय अपार |

अष्टादश दोष रहित जिनवर, अरिहन्त देव को नमस्कार ||१||

 

अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार |

जय अजर अमर हे! मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ||२||

 

छत्तीस सुगुण से तुम मंडित, निश्चय रत्नत्रय हृदय धार |

हे! मुक्तिवधू के अनुरागी, आचार्य सुगुरु को नमस्कार ||३||

 

एकादश-अंग पूर्व-चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार |

बाह्यांतर मुनि-मुद्रा महान्, श्री उपाध्याय को नमस्कार ||४||

 

व्रत समिति गुप्ति चारित्र प्रबल, वैराग्य भावना हृदय धार |

हे! द्रव्य-भाव संयममय मुनिवर, सर्व साधु को नमस्कार ||५||

 

बहु पुण्य संयोग मिला नरतन, जिनश्रुत जिनदेव चरण दर्शन |

हो सम्यक् दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव जीवन ||६||

 

निज पर का भेद जानकर मैं, निज को ही निज में लीन करूँ |

अब भेदज्ञान के द्वारा मैं, निज आत्म स्वयं स्वाधीन करूँ ||७||

 

निज में रत्नत्रय धारण कर, निज-परिणति को ही पहचानूँ |

पर-परिणति से हो विमुख सदा, निजज्ञान तत्त्व को ही जानूँ ||८||

 

जब ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता विकल्प तज, शुक्ल ध्यान मैं ध्याऊँगा |

तब चार घातिया क्षय करके, अरिहन्त महापद पाऊँगा ||९||

 

है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु! कब इसको पाऊँगा |

सम्यक् पूजा-फल पाने को, अब निज स्वभाव में आऊँगा ||१०||

 

अपने स्वरूप की प्राप्ति-हेतु, हे प्रभु! मैंने की है पूजन |

तब तक चरणों में ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन ||११||

ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हे! मंगलरूप अमंगल-हर, मंगलमय मंगलगान करूँ |

मंगलों में प्रथम श्रेष्ठ मंगल, णमोकार मंत्र का ध्यान करूँ ||

।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।