श्री सिद्ध पूजा (हिंदी)



कविश्री हीराचंद

 

(अडिल्ल छन्द)

अष्ट-करम करि नष्ट अष्ट-गुण पाय के,

अष्टम-वसुधा माँहिं विराजे जाय के |

ऐसे सिद्ध अनंत महंत मनाय के,

संवौषट् आह्वान करूँ हरषाय के ||

ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)

ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)

ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)

 

(छन्द त्रिभंगी)

हिमवन-गत गंगा आदि अभंगा, तीर्थ उतंगा सरवंगा |

आनिय सुरसंगा सलिल सुरंगा, करि मन चंगा भरि भृंगा ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ||

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।

 

हरिचंदन लायो कपूर मिलायो, बहु महकायो मन भायो |

जल संग घिसायो रंग सुहायो, चरन चढ़ायो हरषायो ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।

 

तंदुल उजियारे शशि-दुति टारे, कोमल प्यारे अनियारे |

तुष-खंड निकारे जल सु-पखारे, पुंज तुम्हारे ढिंग धारे ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

 

सुरतरु की बारी प्रीति-विहारी, किरिया प्यारी गुलजारी |

भरि कंचनथारी माल संवारी, तुम पद धारी अतिसारी ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।

 

पकवान निवाजे स्वाद विराजे, अमृत लाजे क्षुध भाजे |

बहु मोदक छाजे घेवर खाजे, पूजन काजे करि ताजे ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

 

आपा-पर भासे ज्ञान प्रकाशे, चित्त विकासे तम नासे |

ऐसे विध खासे दीप उजासे, धरि तुम पासे उल्लासे ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

 

चुंबत अलिमाला गंधविशाला, चंदन काला गरुवाला |

तस चूर्ण रसाला करि तत्काला, अग्नि-ज्वाला में डाला ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्ट-कर्म-विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।

 

श्रीफल अतिभारा, पिस्ता प्यारा, दाख छुहारा सहकारा |

रितु-रितु का न्यारा सत्फल सारा, अपरंपारा ले धारा ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।

 

जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा |

मेटो भवफंदा सब दु:खदंदा, ‘हीराचंदा’ तुम वंदा ||

त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |

शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || 

ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।९।

 

जयमाला

(दोहा)

ध्यान-दहन विधि-दारु दहि, पायो पद-निरवान |

पंचभाव-जुत थिर थये, नमूं सिद्ध भगवान् ||१||

 

(त्रोटक छन्द)

सुख सम्यक्-दर्शन-ज्ञान लहा, अगुरु-लघु सूक्षम वीर्य महा |

अवगाह अबाध अघायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२||

 

असुरेन्द्र सुरेन्द्र नरेन्द्र जजें, भुवनेन्द्र खगेन्द्र गणेन्द्र भजें |

जर-जामन-मर्ण मिटायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||३||

 

अमलं अचलं अकलं अकुलं, अछलं असलं अरलं अतुलं |

अबलं सरलं शिवनायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||४||

 

अजरं अमरं अघरं सुधरं, अडरं अहरं अमरं अधरं |

अपरं असरं सब लायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||५||

 

वृषवृंद अमंद न निंद लहें, निरदंद अफंद सुछंद रहें |

नित आनंदवृंद बधायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||६||

 

भगवंत सुसंत अनंत गुणी, जयवंत महंत नमंत मुनी |

जगजंतु तणे अघ घायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||७||

 

अकलंक अटंक शुभंकर हो, निरडंक निशंक शिवंकर हो |

अभयंकर शंकर क्षायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||८||

 

अतरंग अरंग असंग सदा, भवभंग अभंग उतंग सदा |

सरवंग अनंग नसायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||९||

 

ब्रह्मंड जु मंडल मंडन हो, तिहुँ-दंड प्रचंड विहंडन हो |

चिद्पिंड अखंड अकायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१०||

 

निरभोग सुभोग वियोग हरे, निरजोग अरोग अशोक धरे |

भ्रमभंजन तीक्षण सायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||११||

 

जय लक्ष अलक्ष सुलक्षक हो, जय दक्षक पक्षक रक्षक हो |

पण अक्ष प्रतक्ष खपायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१२||

 

अप्रमाद अनाद सुस्वाद-रता, उनमाद विवाद विषाद-हता |

समता रमता अकषायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१३||

 

निरभेद अखेद अछेद सही, निरवेद अवेदन वेद नहीं |

सब लोक-अलोक के ज्ञायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१४||

 

अमलीन अदीन अरीन हने, निजलीन अधीन अछीन बने |

जम को घनघात बचायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१५||

 

न अहार निहार विहार कबै, अविकार अपार उदार सबै |

जगजीवन के मनभायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१६||

 

असमंध अधंद अरंध भये, निरबंध अखंद अगंध ठये |

अमनं अतनं निरवायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१७||

 

निरवर्ण अकर्ण उधर्ण बली, दु:ख हर्ण अशर्ण सुशर्ण भली |

बलिमोह की फौज भगायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१८||

 

अविरुद्ध अक्रुद्ध अजुद्ध प्रभू, अति-शुद्ध प्रबुद्ध समृद्ध विभू |

परमातम पूरन पायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१९||

 

विरूप चिद्रूप स्वरूप द्युती, जसकूप अनूपम भूप भुती |

कृतकृत्य जगत्त्रय-नायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२०||

 

सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू, उत्कृष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू |

शिव तिष्ठत सर्व-सहायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२१||

 

जय श्रीधर श्रीकर श्रीवर हो, जय श्रीकर श्रीभर श्रीझर हो |

जय रिद्धि सुसिद्धि-बढ़ायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२२||

 

(दोहा)

सिद्ध-सुगुण को कहि सके, ज्यों विलसत नभमान |

‘हीराचंद’ ता ते जजे, करहु सकल कल्यान ||२३||

ह्रीं श्री अनाहतपराक्रमाय सकलकर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरिमेष्ठिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

(अडिल्ल छन्द)

सिद्ध जजैं तिनको नहिं आवे आपदा |

पुत्र – पौत्र धन – धान्य लहे सुख – संपदा ||

इंद्र चंद्र धरणेद्र नरेन्द्र जु होय के |

जावें मुकति मँझार करम सब खोय के ||२४||

इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) |