नीति - अमृत



 

हाथ देख मत देख लो, मिला बाहुबल पूर्ण।

सदुपयोग बल का करो, सुख पाओ सम्पूर्ण ॥1॥

 

देख सामने चल अरे, दीख रहे अवधूत।

पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत ॥2॥

 

उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर।

आत्म बोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर ॥3॥

 

हित-मित-नियमित-मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल।

वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा डोल ॥4॥

 

कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप मंडूक।

बरसाती मेंढ़क नहीं, बरसो घन बन मूक ॥5॥

 

हीरा मोती पद्म ना, चाहूँ तुमसे नाथ

तुम सा तम तामस मिटा, सुखमय बनूँ प्रभात ॥6॥

 

संत पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप।

ऊष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप ॥7॥

 

लगाम अंकुश बिन नहीं, हय गय देते साथ।

ब्रत श्रुत बिन मन कब चले, विनम्र करके माथ ॥8॥

 

भले कूर्म गति से चलो, चलो कि ध्रुव की ओर।

किन्तु कूर्म के धर्म को, पालो पल-पल और ॥9॥

 

खुला खिला हो कमल वह, जब लौं जल सम्पर्क।

छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क ॥10॥

 

भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग।

निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग ॥11॥

 

पेटी भर ना पेट भर, खेती कर नाखेट।

लोकतंत्र में लोक का, संग्रह हो भरपेट ॥12॥

 

सार-सार का ग्रहण हो, असार को फटकार।

नहीं चालनी तुम बनो, करो सूप सत्कार ॥13॥

 

मात्रा मौलिक कब रही, गुणवत्ता अनमोल।

जितना बढ़ता ढोल है, उतना बढ़ता पोल ॥14॥

 

दूर दिख रही लाल सी, पास पहुँचते आग।

अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग ॥15॥

 

खिड़की से क्यों देखता, दिखे दुखद संसार।

खिड़की में अब देख ले, मिले सुखद साकार॥16॥

 

स्वर्ण पात्र में सिंहनी, दुग्ध टिके नान्यत्र।

विनय पात्र में शेष भी, गुण टिकते एकत्र ॥17॥

 

थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास।

रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ॥18॥

 

यम दम शम सम तुम धरो, क्रमश: कम श्रम होय।

नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥19॥

 

स्वीकृत हो मम नमन ये, जय-जय-जय-जयसेन।

जैन बना अब जिन बनूँ, मन रटता दिन रैन॥20॥