शिक्षाप्रद - दोहावली



 

सागर का जल क्षार क्‍यों, सरिता मीठी सार।

बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार ॥1॥

 

उन्नत बनने नत बनो, लघु से राघव होय।

कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय ॥2॥

 

नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना ही परमार्थ।

देख गिरे को हम जगे, सही करे पुरषार्थ ॥3॥

 

कौरव रव रव में गए, पाण्डव क्यों शिवधाम। 

स्वार्थ और परमार्थ का, और कौन परिणाम ॥4॥

 

भूल नहीं पर भूलना, शिवपथ में वरदान।

भूल नदी गिरि को करे, सागर का संधान ॥5॥

 

दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर।

आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर ॥6॥

 

सूरज दूरज हो भले, भरी गगन में धूल।

पर सर में नीरज खिले, धीरज हो भरपूर ॥7॥

 

ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिये अभंग।

ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग ॥8॥

 

प्रभु दर्शन फिर गुरु कृपा, तदनुसार पुरुषार्थ।

दुर्लभ जग में तीन ये, मिले सार परमार्थ ॥9॥

 

अन्त किसी का कब हुआ, अनंत सब हे संत।

पर सब मिटता सा लगे, पतझड़ पुन बसंत ॥10॥

 

ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है विश्राम।

लायक बन नायक नहीं, जाना है शिवधाम ॥11॥

 

सूक्ष्म वस्तु यदि न दिखे, उनका नहीं अभाव।

तारा राजी रात में, दिन में नहीं दिखाव ॥12॥

 

लघु कंकर भी डूबता, तिरे काष्ठ स्थूल।

क्यों मत पूछो तर्क से, स्वभाव रहता दूर ॥13॥

 

कल्प काल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प।

अल्प काल भी मौन ले, चलता अन्तर्जल्प ॥14॥

 

सुचिर काल से सो रहा, तन का करता राग।

ऊषा सम नरजन्म है, जाग सके तो जाग ॥15॥

 

दिन का हो या रात का, सपना सपना होय।

सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय ॥16॥

 

दोष रहित आचरण से, चरण पूज्य बन जाये।

चरण धूल तक सर चढ़े, मरण पूज्य बन जाये ॥17॥

 

एक साथ दो बैल तो, मिलकर खाते घास।

लोकतंत्र पा क्‍यों लड़ो, क्यों आपस में त्रास ॥18॥

 

बूँद-बूँद के मिलन से, जल में गति आ जाये।

सरिता बन सागर मिले, सागर बूँद समाय ॥19॥