श्री मल्लिनाथ चालीसा



मोहमल्ल मद मर्दन करते, मन्मथ दुर्ध्दर का मद हरते ।

धैर्य खडग से कर्म निवारे, बाल्यती को नमन हमारे ।।

 

बिहार प्रान्त की मिथिला नगरी, राज्य करे कुम्भ काश्यप गोत्री ।

प्रभावती महारानी उनकी, वर्षा होती थी रत्नो की ।।

 

अपराजित विमान को तज कर, जननी उदार बसे प्रभु आकर ।

मंगसिर शुक्ल एकादशी शुभ दिन, जन्मे तीन ज्ञान युक्त श्री जिन ।।

 

पूनम चन्द्र समान हो शोभित, इंद्र न्वहन करते हो मोहित ।

तांडव नृत्य करे खुश हो कर, निरखे प्रभु को विस्मित हो कर ।।

 

बढे प्यार से मल्लि कुमार, तन की शोभा हुई अपार ।

पचपन सहस आयु प्रभुवर की, पच्चीस धनु अवगाहन वपु की ।।

 

देख पुत्र की योग्य अवस्था, पिता ब्याह की करें व्यवस्था ।

मिथिलापूरी को खूब सजाया, कन्या पक्ष सुनकर हर्षाया ।।

 

निज मन में करते प्रभु मंथन, हैं विवाह एक मीठा बंधन ।

विषय भोग रूपी ये कर्दम, आत्म ज्ञान के करदे दुर्गम ।।

 

नहीं आसक्त हुए विषयन में, हुए विरक्त गये प्रभु वन में ।

मंगसिर शुक्ल एकादशी पावन, स्वामी दीक्षा करते धारण ।।

 

दो दिन तक धरा उपवास, वन में ही फिर किया निवास ।

तीसरे दिन प्रभु करे निवास, नन्दिषेण नृप दे आहार ।।

 

पात्रदान से हर्षित हो कर, अचरज पाँच करे सुर आकर ।

मल्लिनाथ जो लौटे वन में, लीन हुए आतम चिंतन में ।।

 

आत्मशुद्धि का प्रबल प्रमाण, अल्प समय में उपजा ज्ञान ।

केवलज्ञानी हुए छः दिन में, घंटे बजने लगे स्वर्ग में ।।

 

समोशरण की रचना साजे, अन्तरिक्ष में प्रभु विराजे ।

विशाक्ष आदि अट्ठाईस गणधर, चालीस सहस थे ज्ञानी मुनिवर।।

 

पथिको को सत्पथ दिखलाया, शिवपुर का सनमार्ग दिखाया ।

औषधि शाष्त्र अभय आहार, दान बताये चार प्रकार ।।

 

पाँच समिति लब्धि पांच, पांचो पैताले हैं साँच ।

षट लेश्या जीव षटकाय, षट द्रव्य कहते समझाय ।।

 

सात तत्त्व का वर्णन करते, सात नरक सुन भविमन डरते ।

सातों ने को मन में धारे, उत्तम जन संदेह निवारे ।।

 

दीर्घ काल तक दिया उपदेश, वाणी में कटुता नहीं लेश ।

आयु रहने पर एक मास, शिखर सम्मेद पे करते वास ।।

 

योग निरोध का करते पालन, प्रतिमा योग करें प्रभु धारण ।

कर्म नाश्ता कीने जिनराई, तत्क्षण मुक्ति रमा परणाई ।।

 

फाल्गुन शुक्ल पंचमी न्यारी, सिद्ध हुए जिनवर अविकारी ।

मोक्ष कल्याणक सुर नर करते, संवल कूट की पूजा करते ।।

 

चिन्ह कलश था मल्लिनाथ का, जीन महापावन था उनका ।

नरपुंगव थे वे जिनश्रेष्ठ, स्त्री कहे जो सत्य न लेश ।।

 

कोटि उपाय करो तुम सोच, स्त्रीभव से हो नहीं मोक्ष ।

महाबली थे वे शूरवीर, आत्म शत्रु जीते धार धीर ।।

 

 अनुकम्पा से प्रभु मल्लि की, अल्पायु हो भव वल्लि की ।

अरज त्याही हैं बस अरुणा की, दृष्टि रहे सब पर करुणा की।।