जिन शासन बड़ा निराला मानो अमृत का प्याला...



जिन शासन बड़ा निराला मानो अमृत का प्याला

सभी द्रव्य है भिन्न-भिन्न निर्भार हमें कर डाला रे।।

 

मोह उदय से जग के प्राणी चतुर गति भरमाये

कर्मोदय से भिन्न आत्मा कुन्दकुन्द फरमाये।

मुनिराजों ने खोल दिया मानो मुक्ति का ताला रे ।।टेक।।

 

वीतरागी है देव हमारे, उनसे हम क्या मांगें

रत्नत्रय वैभव के आगे स्वर्ग धूल सम लागे।

सारी दुनिया में नहि देखा तुमसा देने वाला रे ।।टेक।।

 

पंचम काल लगा भारी अध्यात्म की नदियां सूख गई ।

प्राणों की कीमत देने पर जिनवाणी लिपिबद्ध हुई।

मुनिराजों ने तीर्थंकर का विरह भुला ही डाला रे ।।टेक।।

 

आओ हम उन ऋषि मुनियों का ऋण ये आज चुकायें |

तत्त्व ज्ञान का अमृत पीकर अपनी प्यास बुझायें ।

काल अनंत हमें फिर कोई दुखी न करने वाला रे।।टेक।।