Posted on 03-Jun-2020 01:52 PM
विध्यमान बीस तीर्थंकर अर्घ
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्र निहू तैं, थुति पूरी न करी है ।
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।।
ॐ ह्रीं सीमंधररादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1।
अकृत्रिम जिनबिम्बों चैत्यालय अर्घ
कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी-गतान्,
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् कल्पामरावासगान् ।
सद्गंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैर,
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ।।
ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2।
सिद्ध परमेष्ठी अर्घ
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3।
तीस चौबीसी का अर्घ
द्रव्य आठो, जू लीना हैं, अर्घ कर में नवीना हैं ।
पुजतां पाप छीना हैं, भानुमल जोड़ किना हैं ॥
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै ।
सातशत बीस जिनराजे, पुजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामीति स्वाहा ।4।
श्री आदिनाथ जी अर्घ
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हर्षाय,
दीप धुप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ।
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊ मन वच काय,
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातै मैं पूजों प्रभु पाय ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।5।
श्री अजितनाथ जी अर्घ
जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे ।
तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ।।
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं ।
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।6।
श्री सम्भवनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया ।
तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिवरमनि पिया ।।
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे ।
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन सुख पावे ।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।7।
श्री अभिनन्दन नाथ जी अर्घ
अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही ।
नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ।।
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं ।
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।8।
श्री सुमतिनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय ।
नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय जय जिनराय ।।
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय ।
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9।
श्री पद्मप्रभु जी अर्घ
जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगतभाव उमगाय ।
जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय ।
मन वचन तन त्रयधार देत ही, जनम-जरा-मृत जाय ।
पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजौं भाव सों ।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।10।
श्री सुपार्श्वनाथ जी अर्घ
आठों दरब सजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।11।
श्री चंद्रप्रभु जी अर्घ
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं ।
पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ।।
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै ।
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।12।
श्री पुष्पदंत जी अर्घ
जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय ।
तुम पद पूजौं प्रीति लाय के, जय जय त्रिभुवनराय ।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सनीजे ।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।13।
श्री शीतलनाथ जी अर्घ
कं श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे ।
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज साजे ।।
रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा ।
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।14।
श्री श्रेयांसनाथ जी अर्घ
जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली ।
करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ।।
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं ।
दुखदंद फंद निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।15।
श्री वासुपूज्य जी अर्घ
जल फल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई ।
शिवपदराज हेतु हे श्रीपति! निकट धरौं यह लाई । ।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई ।
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।16।
श्री विमलनाथ जी अर्घ
आठों दरब संवार, मनसुखदायक पावने ।
जजौं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।17।
श्री अनन्तनाथ जी अर्घ
शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरौं ।
अरु धूप फल जुत अरघ करि, करजोरजुग विनति करौं ।।
जगपूज परम पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो ।
शिव कंत वंत मंहत ध्यावौं, भ्रंत वन्त नशावनो ।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।18।
श्री धर्मनाथ जी अर्घ
आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई ।
बाजत दृम दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ।।
परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी ।
पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर नाचौं दे दे तारी ।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।19।
श्री शांतिनाथ जी अर्घ
वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी ।
तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ।।
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं ।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।20।
श्री कुन्थुनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी ।
फलजुत जजनकरौं मन सुख धरि, हरो जगत फेरी ।।
कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दासकेरी ।
भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ, निकारो बांह पकर मेरी ।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।21।
श्री अरहनाथ जी अर्घ
सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरुं ।
वर दीपं धूपं, आनंदरुपं, ले फल भूपं, अर्घ करुं ।।
प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालं ।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन मालं, वरभालं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।22।
श्री मल्लिनाथ जी अर्घ
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई ।
शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई ।।
राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा ।
यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा ।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।23।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जी अर्घ
जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजौं वरौं ।
पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत सागर तरौं ।।
शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं ।
तसु चरन आनन्द भरन तारन तरन, विरद विशाल हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।24।
श्री नमिनाथ जी अर्घ
जल फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं ।
जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के ।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।25।
श्री नेमिनाथ जी अर्घ
जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय ।
अष्टम छिति के राज कारन को, जजौं अंग वसु नाय ।।
दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 ।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।26।
श्री पार्श्वनाथ जी अर्घ
नीर गंध अक्षतान, पुष्प चारु लीजिये ।
दीप धूप श्रीफलादि, अर्घ तैं जजीजिये ।।
पार्श्वनाथ देव सेव, आपकी करुं सदा ।
दीजिए निवास मोक्ष, भूलिये नहीं कदा ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।27।
श्री महावीर स्वामी जी अर्घ
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं ।
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ।।
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो ।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।28।
श्री बाहुबली स्वामी जी अर्घ
हूँ शुद्ध निराकुल सिद्धो सम, भवलोक हमारा वासा ना ।
रिपु रागरु द्वेष लगे पीछे, यातें शिवपद को पाया ना ॥
निज के गुण निज में पाने को, प्रभु अर्घ संजोकर लाया हूँ ।
हे बाहुबली तुम चरणों में, सुख सम्पति पाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री-बाहुबली-जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।29।
पञ्च बालयति जी अर्घ
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ अरघ बनावत हैं ।
वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं ॥
श्री वासु-पूज्य-मल्लि-नेम, पारस वीर अती ।
नमूं मन-वच-तन धरी प्रेम, पांचो बालयति ॥
ॐ ह्रीं श्री-पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।30।
सोलहकारण भावना अर्घ
जल फल आठों दरव चढ़ाय ‘द्यानत’ वरत करौं मन लाय।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।।
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।31।
पंचमेरु जी अर्घ
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।।
पांचो मेरू असी जिन धाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।।
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।32।
नन्दीश्वर द्वीप अर्घ
यह अरघ कियो निजहेत, तुमको अरपत हों ।
धानत किज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥
नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों ।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरों ॥
नन्दीश्वर दीप महान चारों दिशि सोहें ।
बावन जिन मन्दिर जान सुर-नर-मन-मोहें ॥
ॐ ह्रीं श्री-नन्दीश्वर-द्वीपें पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण-दिशु द्व-पंचास-जिनालय-स्थित जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।33।
दशलक्षण धर्म अर्घ
आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाह सों ।
भाव-आताप निवार,दस लच्छन पूजो सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री-उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।34।
रत्नत्रय अर्घ
आठ दरब निराधार, उत्तम सों उत्तम लिये।
जनम-रोग निरवार, सम्यक रत्नत्रय भजुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्यग्-रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।35।
सप्तर्षि अर्घ
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धुप सु लावना ।
फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ॥
मन्वादि चारित्रऋद्धि धारक, मुनिन की पूजा करू ।
ता करे पातक हरे सारे, सकल आनंद विस्तरुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-मन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।36।
निर्वाण क्षेत्र जी अर्घ
जल गंध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धुपायन धरौ।
धानत करो निरभय जगत सो, जोर कर विनती करौ ॥
सम्मेदगढ गिरनार चंपा पावापुर कैलाश को ।
पूजो सदा चौबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास को ॥
ॐ ह्रीं श्री-चतुर्विशति-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।37।
श्री सम्मेद शिखर जी अर्घ
जल गंधाक्षत फुल सु नेवज लीजिये ।
दीप धुप फल अर्घ सु लेकर चढ़ाइए ॥
पूजो शिखर सम्मेद सु मन वच काय जू ।
नरकादि दुःख टरै अचल पद पाय जू ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्मेद-शिखर-सिद्धक्षेत्र-पर्वते बीस-तीर्थंकर-आदि-असंख्यात-मुनि-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वपामीति स्वाहा ।38।
सरस्वती (जिनवाणी) जी अर्घ
जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।।
तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।39।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का अर्घ
श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा।
जिनके जीवन की हर चर्यावन पडी स्वयं ही नवगाथा।।
जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली-गली।
जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझायी हृदय कली।।
भावो की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हू |
मेरा सारा दुःख दर्द हरो, यह अर्घ भेटने लाया हू ||
हे तपो मूर्ति, हे आराधक, हे योगीश्वर, हे महासंत |
हे अरुण कामना देख सके, युग युग तक आगामी बसंत ||
ॐ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं नि. स्वाहा |
महार्घ्य
मैं देव श्री अरिहन्त पूजूँ सिद्ध पूजूँ चाव सों |
आचार्य श्री उवझाय पूजूँ साधु पूजूँ भाव सों ||१||
अरिहन्त-भाषित बैन पूजूँ द्वादशांग रचे गनी|
पूजूँ दिगम्बर-गुरुचरण शिव-हेतु सब आशा हनी ||२||
सर्वज्ञ-भाषित धर्म-दशविधि दया-मय पूजूँ सदा |
जजुँ भावना-षोडश रत्नत्रय जा बिना शिव नहिं कदा ||३||
त्रैलौक्य के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय जजूँ |
पनमेरु नंदीश्वर-जिनालय खचर-सुर-पूजित भजूँ ||४||
कैलास श्री सम्मेद श्री गिरनार गिरि पूजूँ सदा |
चम्पापुरी पावापुरी पुनि और तीरथ सर्वदा ||५||
चौबीस श्री जिनराज पूजूँ बीस क्षेत्र विदेह के |
नामावली इक-सहस-वसु जपि होंय पति शिवगेह के ||६||
(दोहा)
जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय |
सर्व पूज्य-पद पूजहूँ, बहुविधि-भक्ति बढ़ाय ||७||
ॐ ह्रीं भावपूजा भाववंदना त्रिकालपूजा त्रिकालवंदना करें करावें भावना भावें श्रीअरिहंतजी सिद्धजी आचार्यजी उपाध्यायजी सर्वसाधुजी पंच-परमेष्ठिभ्यो नम:,प्रथमानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगेभ्यो नम:, दर्शनविशुद्ध्यादि-षोडशकारणेभ्यो नम:, उत्तमक्षमादि- दशलाक्षणिकधर्माय नम:, सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रेभ्यो नम:,जल के विषै, थल के विषै, आकाश के विषै, गुफा के विषै, पहाड़ के विषै, नगर-नगरी विषै उर्ध्वलोक- मध्यलोक- पाताललोक विषै विराजमान कृत्रिम-अकृत्रिम जिन-चैत्यालय-जिनबिम्बेभ्यो नम:,विदेहक्षेत्रे विहरमान बीस-तीर्थकरेभ्यो नम:, पाँच भरत पाँच ऐरावत दशक्षेत्र-सम्बन्धि तीस चौबीसी के सातसौ बीस जिनराजेभ्यो नम:, नन्दीश्वरद्वीप-सम्बन्धी बावन- जिनचैत्यालयस्थ- जिनबिम्बेभ्यो नम:,पंचमेरुसम्बन्धि-अस्सी-जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नम:, सम्मेदशिखर कैलाश चंपापुर पावापुर गिरनार सोनागिर मथुरा तारंगा आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम:,जैनबद्री मूडबिद्री देवगढ़ चन्देरी पपौरा हस्तिनापुर अयोध्या राजगृही चमत्कारजी श्रीमहावीरजी पद्मपुरी तिजारा बड़ागांव आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो नम:, श्री चारणऋद्धिधारी सप्तपरमषिऋभ्यो नम:,ओं ह्रीं श्रीमंतं भगवन्तं कृपावन्तं श्रीवृषभादि महावीरपर्यन्तं चतुविंर्शति-तीर्थंकरं-परमदेवं आद्यानां आद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे उत्तमे नगरे मासानामुत्तमे मासेउत्तमे पक्षे उत्तमे तिथौ उत्तमे वासरे मुनि-आर्यिकानां श्रावक-श्राविकाणां सकल-कर्म क्षयार्थं अनर्घ्यपद-प्राप्तये जलधारा सहित महार्घ्यं सम्पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिपाठ
शांतिनाथ मुख शशि उनहारी, शीलगुणव्रत संयमधारी।
लखन एक सौ आठ विराजे, निरखत नयन कमल दल लाजै।।
पंचम चक्रवर्ती पदधारी, सोलम तीर्थंकर सुखकारी।
इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिननायक, नमो शांतिहित शांति विधायक।।
दिव्य विटप पहुपन की वरषा, दुंदुभि आसन वाणी सरसा।
छत्र चमर भामंडल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी।।
शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगत पूज्य पूजों सिरनाई।
परम शांति दीजे हम सबको, पढ़ैं तिन्हे पुनि चार संघ को।।
पूजें जिन्हें मुकुटहार किरीट लाके, इन्द्रादिदेव अरु पूज्यपदाब्ज जाके।
सो शांतिनाथ वर वंश-जगत्प्रदीप, मेरे लिए करहु शांति सदा अनूप।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर जल छोड़ना चाहिए)
संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीनकों को यतिनायकों को।
राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शांति को दे।।
होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा।
होवे वरषा समय पे, तिलभर न रहे व्याधियों का अन्देशा।।
होवे चोरी न जारी, सुसमय वरते, हो न दुष्काल भारीं।
सारे ही देश धारैं, जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर चंदन छोड़ना चाहिए)
घाति कर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज।
शांति करो ते जगत में, वृषभादिक जिनराज।।
शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्संगति का।
सद्वृत्तों का सुजस कहके, दोष ढाँकूँ सभी का ।।
बोलूँ प्यारे वचन हितके, आपका रूप ध्याऊँ ।
तौलौ सेऊँ चरण जिनके, मोक्ष जौ लौं न पाऊँ ।।
तब पद मेरे हिय में, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में।
तब लौं लीन रहौ प्रभु, जब लौ पाया न मुक्ति पद मैंने ।।
अक्षर पद मात्रा से दूषित जो कुछ कहा गया मुझसे।
क्षमा करो प्रभु सो सब करुणा करिपुनि छुड़ाहु भवदुःख से ।।
हे जगबन्धु जिनेश्वर, पाऊँ तब चरण शरण बलिहारी।
मरणसमाधि सुदुर्लभ, कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी।
(पुष्पांजलि क्षेपण)
(यहाँ नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें)
विसर्जन
बिन जाने वा जान के, रही टूट जो कोय।
तुम प्रसाद तें परम गुरु, सो सब पूरन होय।।
पूजन विधि जानूँ नहीं, नहिं जानूँ आह्वान।
और विसर्जन हूँ नहीं, क्षमा करो भगवान।।
मंत्रहीन धनहीन हूँ, क्रियाहीन जिनदेव ।
क्षमा करहु राखहु मुझे, देहु चरण की सेव ।।
आये जो जो देवगण, पूजे भक्ति प्रमान|
ते अब जावहु कृपाकर अपने अपने थान||
(निम्न श्लोक को पढ़कर विसर्जन करना चाहिए)
श्री जिनवर की आशिका, लीजे शीश चढ़ाय|
भव-भव के पातक कटे, दुःख दूर हो जाए||
(यहाँ नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें)
Very nice
by Aksh jain at 07:54 PM, Aug 14, 2024
Thanks 🙏
by Admin at 08:05 PM, Aug 17, 2024
विधिवत सम्पूर्ण पूजा अति सुंदर। धन्यवाद
by मिथलेश जैन at 09:35 AM, Sep 21, 2023
जय जिनेन्द्र आपका बहुत बहुत आभार
by Admin at 05:49 PM, Sep 27, 2023
बहुत अच्छा है l मन शांत हो जाता है l भगवान की आराधना में शक्ति है l Jay jinendra
by Pradeepkumar Khot jain at 04:33 AM, Sep 28, 2022
Very nice bht bht anumodna Me train me hone se pujan mandir ji me nahi kar paya or paryushan ka first day tha to mob me net se pujan ki Aapka bht bht dhanyawad
by Deepakjain at 02:35 PM, Aug 31, 2022
Good
by V k jain at 09:33 AM, Jul 13, 2022
Thanks for giving this
by Shilpi Jain at 10:00 AM, Sep 29, 2021