श्री अजितनाथ जिन पूजन



त्याग वैजयन्त सार सारधर्म के अधार,

जन्मधार धीर नग्न सुष्टु कौशलापुरी |

अष्ट दुष्ट नष्टकार मातु वैजयाकुमार,

आयु लक्षपूर्व दक्ष है बहत्तरै पुरी ||

ते जिनेश श्री महेश शत्रु के निकन्दनेश,

अत्र हेरिये सुदृष्टि भक्त पै कृपा पुरी |

आय तिष्ठ इष्टदेव मैं करौं पदाब्जसेव,

परम शर्मदाय पाय आय शर्न आपुरी ||

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्रावतरावतर संवौषट् |

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

 

अष्टक

गंगाह्रद पानी निर्मल आनी, सौरभ सानी सीतानी |

तसु धारत धारा तृषा निवारा, शांतागारा सुखदानी ||

श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं |

मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ||

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

 

शुचि चंदन बावन ताप मिटावन, सौरभ पावन घसि ल्यायो |

तुम भवतपभंजन हो शिवरंजन, पूजन रंजन मैं आयो || श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

 

सितखंड विवर्जित निशिपति तर्जित, पुंज विधर्जित तंदुल को |

भवभाव निखर्जित शिवपदसर्जित, आनंदभर्जित दंदल को || श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

 

मनमथ मद मंथन धीरज ग्रंथन, ग्रंथ निग्रंथन ग्रंथपति |

तुअ पाद कुशेसे आधि कुशेसे, धारि अशेसे अर्चयती || श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

 

आकुल कुलवारन थिरताकारन, छुधा विदारन चरु लायो |

षट् रस कर भीने अन्न नवीने, पूजन कीने सुख पायो || श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

 

दीपकमनिमाला जोतउजाला, भरि कनथाला हाथ लिया |

तुम भ्रमतम हारी शिवसुख कारी, केवलधारी पूज किया | श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

 

अगरादिक चूरन परिमल पूरन, खेवत कुरन कर्म जरें |

दशहूं दिश धावत हर्ष बढ़ावत, अलिगुण गावत नृत्य करें || श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

 

बादाम नंरगी श्रीफल पुंगी आदि अभंगी सों अरचौं |

सब विघनविनाशे सुख प्रकाशै, आतम भासै भौ विरचौं ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

 

जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे |

तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ||श्री0

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

 

पंचकल्याणक अर्घ्यावली

जेठ असेत अमावशि सोहे, गर्भदिना नँद सो मन मोहे |

इंद फनिंद जजे मनलाई, हम पद पूजत अर्घा चढ़ाई ||

ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाअमावस्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1|

 

माघ सुदी दशमी दिन जाये, त्रिभुवन में अति हरष बढ़ाये |

इन्द फनिंद जजें तित आई, हम पद सेवत हैं हुलशाई ||

ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने जन्मंगलमण्डिताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |2|

 

माघ सुदी दशमी तप धारा, भव तन भोग अनित्य विचारा |

इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम पद सेवत हैं सिरनाई ||

ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |3|

 

पौषसुदी एकादशी सुहायो, त्रिभुवनभानु सु केवल जायो |

इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम पद पूजत प्रीति लगाई ||

ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादशीदिनेज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |4|

 

पंचमि चैतसुदी निरवाना, निजगुनराज लियो भगवाना |

इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम पद पूजत हैं गुनगाई ||

ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पंचमीदिने निर्वाणमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |5|

 

जयमाला

दोहा

अष्ट दुष्टको नष्ट करि इष्टमिष्ट निज पाय |

शिष्ट धर्म भाख्यो हमें पुष्ट करो जिनराय |1|

 

जय अजित देव तुअ गुन अपार, पै कहूँ कछुक लघु बुद्धि धार |

दश जनमत अतिशय बल अनन्त, शुभ लच्छन मधुचन भनंत |2|

 

संहनन प्रथम मलरहित देह, तन सौरभ शोणित स्वेत जेह |

वपु स्वेदबिना महरुप धार, समचतुर धरें संठान चार |3|

 

दश केवल, गमन अकाशदेव, सुरभिच्छ रहै योजन सतेव |

उपसर्गरहित जिनतन सु होय, सब जीव रहित बाधा सुजोय |4|

 

मुख चारि सरब विद्याअधीश, कवलाअहार सुवर्जित गरीश |

छायाबिनु नख कच बढ़ै नाहिं, उन्मेश टमक नहिं भ्रकुटि माहिं |5|

 

सुरकृत दशचार करों बखान, सब जीवमित्रता भाव जान |

कंटक विन दर्पणवत सुभूम, सब धान वृच्छ फल रहै झूम |6|

 

षटरितु के फूल फले निहार, दिशि निर्मल जिय आनन्द धार |

जंह शीतल मंद सुगंध वाय, पद पंकज तल पंकज रचाय |7|

 

मलरहित गगन सुर जय उचार, वरषा गन्धोदक होत सार |

वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु मंगलजुत यह सुर रचाय |8|

 

सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल छवि वरनी न जात |

तरु उच्च अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि दिव्य और दुन्दुभि मिष्ट |9|

 

दृग ज्ञान शर्म वीरज अनन्त, गुण छियालीस इम तुम लहन्त |

इन आदि अनन्ते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार |10|

 

तब समवशरणमँह इन्द्र आय, पद पूजन सुविधि दरब लाय |

अति भगति सहित नाटक रचाय, ताथेई थेई थेई धुनि रही छाय |11|

 

पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय |

घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम घुंघरु बजाय |12|

 

दृम दृम दृम दृम दृम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान |

झट झट झट अटपट नटत नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट |13|

 

पुनि वन्दि इन्द्र थुति नुति करन्त, तुम हो जगमें जयवन्त सन्त |

फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग निरोध्यो परम इष्ट |14|

 

सम्मेदथकी लिय मुकति थान, जय सिद्धशिरोमन गुणनिधान |

‘वृन्दावन’ वन्दत बारबार, भवसागरतें मोहि तार तार |15|

 

जय अजित कृपाला गुमणिमाला, संजमशाला बोधपति |

वर सुजस उजाला हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती |16|

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

 

जो जन अजित जिनेश जजें हैं, मनवचकाई |

ताकों होय अनन्द ज्ञान सम्पति सुखदाई ||

 

पुत्र मित्र धनधान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे |

सकल शत्रु छय जाय अनुक्रमसों शिव पावे |17|

इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) |