कोई किसी का क्यों करें: (डाॅ. हुकमचन्द भारिल्ल )



कोई किसी का क्या करे, कोई किसी का क्यों करे?

सब द्रव्य अपने परिणमन के जब स्वयं जिम्मेवार हैं।।

जिस देह में आतम रहे, जब वही अपनी ना बने।

तब शेष सब संयोग भी अपने बताओ क्यों बने?।।१।।

 

एक अपनी आत्मा ही स्वयं अपने रूप है।

और सब संयोग तो बस एकदम पररूप हैं।।

संयोग की ही भावना बस भवभ्रमण का हेतु है।

और अपनी भावना ही एक मुक्ति सेतु है।२।

 

संयोग बदलें निरंतर इस दुःखमयी संसार में।

उनको मिलाना असंभव है सुनिश्चित संसार में।।

संयोग होते हैं सहज पर करोड़ों में एक भी।

मिल जाय तो मिल जाय रे अत्यन्त दुर्लभ जानिये।।३।।

 

संयोग मिलना-बिछुड़ना ना है किसी के हाथ में।

पूरी तरह हैं सुनिश्चित सब ही अनादिकाल से।

इस सत्य को स्वीकार करना ही सहज पुरुषार्थ है।

सहज में ही सहज रहना एक ही परमार्थ है।।४।

 

बस एक सुख का मूल है निज आत्म में अपनापना।

स्वयं को पहिचानना अर स्वयं को निज जानना।।

स्वयं में ही समा जाना स्वयं में ही लीनता।

स्वयं के सर्वांग में ही स्वयं की तल्लीनता।।५।।

 

यही सच्चा धर्म है अर यही सच्ची साधना।

है आत्मा की साधना अर आत्म की आराधना।।

निज आत्मा में रमणता निज आत्मा का धर्म है।

निज आत्मा के धर्म का इक यही सच्चा मर्म है।।६।।

 

सद्धर्म का यह मर्म है सब स्वयं में तल्लीन हों।

स्वयं की तल्लीनता से रहित जन भवलीन हों।।

भवलीन संसारी सदा भव में भटकते ही रहें।

निज आत्मा के भान बिन सुख को तरसते ही रहें।।७।।

 

ज्ञानमय आनन्दमय यह अमल निर्मल आतमा।

सद्ज्ञान दर्शन चरणमय सुख-शान्तिमय यह आत्मा।।

जो शक्तियों का संग्रहालय गुणों का गोदाम है।

आनन्द का है कंद अर आराधना का धाम है।।८।।

 

आराधना का धाम है सुख साधना का धाम है।

और अपनी आत्मा का एक ही ध्रुवधाम है।

एक ही ध्रुवधाम है बस एक ही सुखधाम है।

अध्रुव सभी संयोग बस निज आत्मा ध्रुवधाम है।।९।।

 

ध्रुवधाम में एकत्व रे ध्रुवधाम की आराधना।

ध्रुवधाम में सर्वस्व अर ध्रुवधाम की ही साधना।।

साधना आराधना आराधना अर साधना।

हे भव्यजन ! नित करो अपने आत्म की आराधना।।१०।।

 

( दोहा )

आतम ही ध्रुवधाम है आतम आतमराम।

आतम आतम में रमें हूँ मैं आतमराम।।११।।