निर्ग्रंथ भावना



निर्ग्रंथता की भावना, अब हो सफल मेरी। बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी।।

करके विराधन तत्त्व का,बहु दुःख उठाया। आराधना का यह समय,अतिपुण्य से पाया ।। मिथ्या प्रपंचों में उलझ अब क्यों करूं देरी ।।

जबसे लिया चैतन्य के,आनन्द का आस्वाद । रमणीक भोग भी लगें,मुझको सभी निःस्वाद ।ध्रुवधाम की ही ओर दौड़े,परिणति मेरी।।

पर में नहीं कर्तव्य मुझको,भासता कुछ भी । अधिकार भी दीखे नहीं जग में अरे कुछ भी  निज अन्तरंग में ही दिखे,प्रभुता मुझे मेरी ।।

क्षण-क्षण कषायों के प्रसंग ही बनें जहाँ । मोहीजनों के संग में,सुख-शान्ति हो कहाँ ।। जग संगति से तो बढ़े,दुःखमय भ्रमण फेरी ।।

अब तो रहूँ निर्जन वनों में, गुरुजनों के संग। शुद्धात्मा के ध्यानमय हो,परिणति असंग ।। निजभाव में ही लीन हो,मेटू जगत्-फेरी ।।

कोई अपेक्षा हो नहीं, निर्द्वन्द्व हो जीवन । सन्तुष्ट निज में ही रहूँ,नित आप सम भगवन् हो आप सम निर्मुक्त, मंगलमय दशा मेरी ।।

अब तो सहा जाता नहीं,बोझा परिग्रह का विग्रह का तो मूल लगता,विकल्प विग्रह का ।स्वाधीन स्वाभाविक सहज हो,परिणति मेरी।।

निर्ग्रंथता की भावना, अब हो सफल मेरी। बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी।।