निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध, उदायन राजा की कथा



सौधर्म-स्वर्ग में देवों की सभा लगी हुई है; इन्द्र महाराज देवों को सम्यग्दर्शन की महिमा समझा रहे हैं। हे देवों! सम्यग्दर्शन में तो आत्मा का कोई अद्भुत सुख हैं। जिस सुख के समक्ष इस स्वर्ग सुख की कोई गिनती नहीं है। इस स्वर्गलोक में मुनिदशा नहीं हो सकती, परन्तु सम्यग्दर्शन की आराधना तो यहाँ भी हो सकती है।

मनुष्य तो सम्यक्त्व की आराधना के अतिरिक्त चारित्रदशा भी प्रगट करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जो जीव, निःशंकता, निःकाँक्षा, निर्विचिकित्सा आदि आठ अंगों सहित शुद्ध सम्यग्दर्शन के धारक हैं, वे धन्य हैं। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों की यहाँ स्वर्ग में भी हम प्रशंसा करते हैं।

वर्तमान में कच्छ देश में उदायन राजा ऐसे सम्यक्त्व से शोभायमान हैं तथा सम्यक्त्व के आठों अंग का पालन कर रहे हैं। जिसमें निर्विचिकित्सा अंग के पालन में वे बहुत दृढ़ हैं। मुनिवरों की सेवा में वे इतने तत्पर हैं कि चाहे जैसा रोग हो तो भी वे रंचमात्र जुगुप्सा नहीं करते तथा ग्लानिरहित परमभक्ति से धर्मात्माओं की सेवा करते हैं। उन्हें धन्य हैं। वे चरमशरीरी हैं।

राजा के गुणों की ऐसी प्रशंसा सुनकर वास्त्रव नाम के एक देव को यह सब प्रत्यक्ष देखने की इच्छा हुयी और वह स्वर्ग से उतरकर मनुष्यलोक में आए।

उदायनराजा एक मुनिराज को भक्तिपूर्वक आहारदान ने लिए पड़गाहन कर रहे हैं पधारो, पधारो, पधारो रानी सहित उदायन राजा नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराज को आहारदान देने लगे।

अरे, यह क्या ? कई लोग तो वहाँ से दूर भागने लगे और बहुत से मुँह के आगे कपड़ा लगाने लगे क्योंकि इन मुनि के काले-कुबड़े शरीर में भयंकर कुष्ठ रोग था और उससे असह्य दुर्गन्ध निकल रही थी; हाथ-पैर की उँगलियों से पीप निकल रही थी। परन्तु राजा को इसका कोई लक्ष्य नहीं था वह तो प्रसन्नचित्त-होकर परम भक्तिपूर्वक एकाग्रता से मुनि को आहारदान दे रहे थे,और अपने को धन्य मान रहे थे कि अहा ! रत्नत्रयधारी मुनिराजका हमारे घर आगमन हुआ। उनकी सेवा से मेरा जीवन सफल हुआ है।

इतने में अचानक मुनि का जी मचलाया और उल्टी हो गयी और वह उल्टी राजा-रानी के शरीर पर गिरी। दुर्गन्धित उल्टी गिरने पर भी राजा-रानी को न तो ग्लानि उत्पन्न हुयी और न मुनिराज के प्रति रञ्चमात्र तिरस्कार ही आया बल्कि अत्यन्त सावधानी से वे मुनिराज के दुर्गन्धमय शरीर को साफ करने लगे और विचारने लगे कि अरे रे हमारे आहारदान में जरूर कोई भूल हो गयी है, जिसके कारण मुनिराज को यह कष्ट हुआ, हम मुनिराज की पूरी सेवा न कर सके।

अभी तो राजा ऐसा विचार कर रहे हैं कि इतने में वे मुनि अचानक अदृश्य हो गए और उनके स्थान पर एक देव दिखाई दिए। अत्यन्त प्रशंसापूर्वक उसने कहा हे राजन्! धन्य है तुम्हारे सम्यक्त्व को तथा धन्य है तुम्हारी निर्विचिकित्सा को! इन्द्र महाराज ने तुम्हारे गुणों की जैसी प्रशंसा की थी, वैसे ही गुण मैंने प्रत्यक्ष देखे हैं। हे राजन! मुनि के वेश में मैं ही तुम्हारी परीक्षा करने आया था। धन्य है आपके गुणों को! ऐसा कहकर देव ने नमस्कार किया।

वास्तव में मुनिराज को कोई कष्ट नहीं हुआ ऐसा जानकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया, और वे बोले हे देव! यह मनुष्य-शरीर तो स्वभाव से ही मलिन है तथा रोगादिक का घर है। अचेतन शरीर मैला हो, उससे आत्मा को क्या? धर्मी का आत्मा तो सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों से शोभायमान है। शरीर की मलिनता को देखकर जो धर्मात्मा के गुणों के प्रति अरुचि करता है, उसे आत्मदृष्टि नहीं है; देहदृष्टि है। अरे, चमड़े के शरीर से ढँका हुआ आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शोभायमान है, वह प्रशंसनीय है।

उदायन राजा की ऐसी श्रेष्ठ बात सुनकर देव बहुत प्रसन्न हुए और उनने राजा को कई विद्याएँ दीं तथा अनेक वस्त्राभूषण दिये परन्तु राजा को उन सबकी इच्छा कहाँ थी? वे तो समस्त परिग्रह का त्याग करके वर्द्धमान भगवान के समवसरण में गए और मुनिदशा अंगीकार की तथा केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष को प्राप्त हुए। सम्यग्दर्शन प्रताप से वे सिद्ध हुए। उन्हें मेरा नमस्कार हो!

[ यह छोटी सी कथा हमें ऐसा बोध देती है कि धर्मात्मा के शरीरादि को अशुचि देखकर भी उनके प्रति ग्लानि मत करो तथा उनके सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों का बहुमान करो।]