विजय सेठ विजया सेठानी (नव दंपती अरु बाल ब्रह्मचारी)



रचयिता - आदरणीय ब्रह्मचारी प्रतीति दीदी

विश्वास नहीं होगा शायद, ऐसा भी कभी हुआ होगा ।

जिसने नव दंपती बन कर भी, मधुरस को नहीं चखा होगा ।।

पर इसमें क्या अचरज करना, यह महावीर का भारत है ।

सदियों से बहती रही यहां, आध्यात्मवाद की आरत है ।।

 

अरे! अब मंदिर के अंदर भी, कुछ ऐसे मनुज दिखाते हैं ।

सुंदर सुंदरियों को विलोक, मन में मलीनता लाते हैं।।

यहां ब्रम्हचर्य व्रत लेकर भी, हो नियत जिन्हों की खोटी है।

ऐसे उन कामी जीवों को, यह कथा नसीहत देती है ।।

 

है बात बंधुओं उस युग की, जब मनुज धर्म अनुगामी था।

कच्छ देश का अहर्द्दास, उन दिनों बहुत ही नामी था ।।

था छोटा सा परिवार किंतु, वह अति वैभव का मालिक था।

उस पति-पत्नी के एक मात्र, बस विजय नाम का बालक था ।।

 

जब बालक बड़ा हुआ तब ही, बालकपन भगने को आया ।

यौवन की पहली सीढ़ी पर, जब उसने पग बढ़ता पाया ।।

फिर ब्रह्मचर्य की महिमा सुन, हुआ प्रभावित वह ज्ञानी ।

हर शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचर्य संग, रहने की उसने ठानी ।।

 

लेकर के मुनि से व्रत विधिवत, की पूरी मन की इच्छा है ।

वह नहीं जानता था इसकी, होनी किस तरह परीक्षा है ।।

कुछ समय बाद संयोग भयानक, कैसा योग मिलाता है ।

जब नगर सेठ धनराज सुता से, वह संबंध रचाता है ।।

 

थी रात परीक्षा की पहली, हृदयों में खुशी संजोई थी ।

सोलह श्रृंगार किए विजया, मीठे सपनों में खोई थी ।।

अब विजय देखिए किस विधि से, वह मंगल रात बिताता है ।

कुछ और ना अर्थ लगा बैठे, विजया का मन बहलाता है ।।

 

हो विजया जिसके पास, विजय निश्चित ही उसकी होती है ।

सोलह स्वर्गों की सुष्मा भी, तेरे सन्मुख थोथी है ।।

यह सुनते लजा गई विजया, घूंघट से चांद निकल आया ।

कुछ और ना आगे हो पाए, मतलब पर विजय उतर आया ।।

 

विजया विवाह के पूर्व सुनो, एक मुनिवर संघ पधारा था ।

परिणय होने पर शुक्ल पक्ष में, रहूं ब्रह्मचर्य धारा था ।।

इस मधुर मिलन के चिर सुख को, झाकूंगा उस निश की झांकी ।

उसे पूर्ण होने में अब कुछ, तीन दिवस ही हैं बाकी ।।

 

इतना सुनते ही सरस सभी, वह सेज सुहागिन कांप उठी ।

विजया की आंखों के आगे, दो क्षण को धरती नाच उठी ।।

उठ गया पतन, उड गया गगन, निश के तारे सब डोल उठे ।

इसके पहले कुछ विजय कहे, विजया के मुख ये बोल उठे ।।

 

"हे नाथ! जानते आप नहीं, कैसे यह जीवन जाएगा ।

जब शुक्ल पक्ष होगा पूरा, तब कृष्ण पक्ष लग जाएगा ।।

फिर नाथ आपके बाद शुरू, होगी विजया की भी बारी ।

शुक्ल पक्ष के सम ही प्रभु, फिर कृष्ण पक्ष होगा जारी।।

 

बालकपन में मैंने भी यह व्रत, सदगुरु जी से धारा था ।

पालूंगी कृष्ण पक्ष पूरा, मेरे मन का यह नारा था ।।"

स्तंभित सा रह गया विजय, शब्दों ने किया किनारा हो ।

या जैसे किसी खिलाड़ी ने, अघ दाव आखिरी हारा हो ।।

 

फिर किले कल्पनाओं के सब, रुक सके ना मन के रोके से ।

सदियों से जिन्हें संभाला था, ढा गए एक ही झोके से ।।

इक ओर भोग इक ओर नियम, दोनों ही डोर करारी थी ।

दोनों के बीचोंबीच परीक्षा, नव दंपती की जारी थी ।।

 

तब मौन तोड़ विजया बोली, "अवसर ना खाली जाने दो ।

कुलवंश बढ़े जिससे आगे, उस शुभ अवसर को आने दो ।।

सुंदर सुशील कन्या विलोक, यह प्रिय अभाव भर सकते हो ।

हो आप पुरुष इस कारण से, फिर से विवाह कर सकते हो ।।

 

विश्वास रखें! में सपनों में, भोगों की ओर ना ताकूंगी ।

पत्नी न सही दासी बनकर, सानंद ज़िंदगी काटूंगी ।।

बस बंद करो,कह उठा विजय, अब और नहीं सुन पाऊंगा ।

मैं पालूं लाख जन्म तो भी, तुम जैसी प्रिया न पाऊंगा ।।

 

कैसे खोऊं यह शुभ अवसर, जो बड़े पुण्य से पाया है ।

संयोग परीक्षा दोनों की, लगता क्षण लेने आया है ।।

कह उठा विजय, विजया सुन ले! , इस तरह विजय न पाएगी ।

परिणय की बात स्वप्न में भी, मुझको न कभी भी आएगी ।।

 

यह बोल - बोल कर के विजया, पहुंचाई तुमने पीड़ा है ।

क्या विषय वासनाओं का ही, मेरा मन लगता कीड़ा है ।।

आजन्म ब्रह्मचर्य का तुझमें, गर पालन करने का बल है ।

क्यों नहीं पाल सकता हूं मैं? क्या नर नारी से दुर्बल है ??

 

तुमने पति व्रत के कारण ही, लगता यह वचन सुनाया है ।

या तुममें इस नर के मन को, सचमुच में जान न पाया है ।।

इतिहास उठा कर देखो तो, तब दोहराना उस वाणी को ।

विजया क्यों लज्जित करती हो, पुरुषों की पौरूष वर्णी को ।।

 

अब एक प्रतिज्ञा और प्रिया, हम दोनों संग में धारेंगे ।

जब एक लक्ष्य है, एक हृदय, तब कैसे हिम्मत हारेंगे ।।

अब भाई भग्नि जैसा हम, यह जीवन गुप्त बिताएंगे ।

जिस दिन मात-पिता जानें, दोनों त्यागी हो जाएंगे ।।

 

वह होगी निश कितनी पावन, उसने क्या पुण्य किया होगा।

जिसके आंचल में नव दंपती ने, यह संकल्प किया होगा ।।

नर इन्द्र सुरेन्द्र महेंद्र सभी, उस पल हर्षाए तो होंगे ।

सुरपुर से सुर ने सरस सुमन, निश्चय से बरसाए होंगे ।।

 

एक ओर गृहस्थ की गिरी जीवाणी, प्रायश्चित उसका करते है ।

नव दंपतियों का भोजन रख कर वे कठिन प्रतिज्ञा धरते हैं ।।

नव दंपती अरु बाल ब्रह्मचारी, जिस दिन भोजन को आएंगे ।

शुभ धवल होएगा चंदोला, प्रायश्चित पूरा पाएंगे ।।

 

देश-विदेश के बाल ब्रह्मचारी, भोजन करने आते हैं ।

शुभ धवल नहीं हो चंदोला, देख देख पछताते हैं ।।

एक दिवस जब विजय सेठ अरु विजया सेठानी आते हैं ।

शुभ धवल हुआ जब चंदोला, सब नर नारी हर्षाते हैं ।।

 

मात पिता ने जब जाना, वर वधू हैं बाल ब्रह्मचारी ।

विजय सेठ ने उस क्षण ही, दिगम्बरी दीक्षा धारी ।।

विजया भी तभी बनी आर्यिका, पावन हुई नगरी सारी ।

असिधार व्रत की यह महिमा, जन जन ने मानो जानी ।।

 

छहों द्रव्य हैं बाल ब्रह्मचारी, परिणति मात्र अपावन है ।

ब्रह्म रूप को लखते ही, परिणति हो जावे पावन है ।।

यह श्रमण संस्कृति का प्रभाव, जो संयम के पुष्प खिलते हैं।

अब भी भारत में यत्र तत्र इस तरह उदाहरण मिलते हैं ।।

 

विश्वास नहीं होगा शायद, ऐसा भी कभी हुआ होगा ।

जिसने नव दंपती बन कर भी, मधुरस को नहीं चखा होगा ।।

पर इसमें क्या अचरज करना, यह महावीर का भारत है ।

सदियों से बहती रही यहां, आध्यात्मवाद की आरत है ।।