भावना बत्तीसी



 

(पद्यानुवाद - क्षुल्लक ध्यान सागर)

मेरा आतम सब जीवों पर मैत्री भाव करे,

गुणगणमंडित भव्य जनों पर प्रमुदित भाव धरे |

दीन दुखी जीवों पर स्वामी! करुणाभाव करे,

और विरोधी के ऊपर नित समताभाव धरे ||1||

 

तुम प्रसाद से हो मुझमे वह शक्ति नाथ! जिससे,

अपने शुद्ध अतुल बलशाली चेतन को तन से |

पृथक कर सकूं पूर्णतया मैं जो योद्धा रण में,

खीचें निज तलवार म्यान से रिपु सन्मुख क्षण में ||2||

 

छोड़ा है सब में अपनापन मैंने मन मेरा

बना रहे नित सुख में दुःख में समता का डेरा |

शत्रु-मित्र में, मिलन-विरह में, भवन और वन में 

चेतन को जाना न पड़े फिर नित नूतन तन में ||3||

 

अंधकार नाशक दीपक-सम अडिग चरण तेरे, 

अहो! विराजे रहें हमेशा उर ही में मेरे |

हों मुनीश! वे घुले हुए से या कीलित जैसे,

अथवा खुदे हुए से हों या प्रतिबिम्ब जैसे ||4||

 

हो प्रमाद वश जहाँ-तहां यदी मैंने गमन किया, 

एकेंद्रिय आदिक जीवों को घायल बना दिया |

पृथक किया हो या भिड़ा दिया हो अथवा दबा दिया,

मिथ्या हो दुष्कृत वह मेरा प्रभुपद शीश किया ||5||

 

चल विरुद्ध शिव-पथ के मैंने जो दुर्मति होके,

होके वश में दुष्ट इन्द्रियों और कषायों के |

खंडित को जो चरित्र-शुद्धी वह दुष्कृत निष्फल हो, 

मेरा मन भी दुर्भावों को तजकर निर्मल हो ||6||

 

मन्त्र शक्ति से वैद्य उतारे ज्यों अहि-विष सारा,

त्यों अपनी निंदा-गर्हा वा आलोचन द्वारा |

मन वच तन से कषाय से संचित अघ भारी,

भव दुःख के कारण नष्ट करूं मैं होकर अविकारी ||7||

 

धर्म-क्रिया में मुझे लगा जो कोई अघकारी,

अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार भारी |

कुमति, प्रमाद-निमित्तक उसका प्रतिक्रमण करता, 

प्रायश्चित्त बिना पापों को कौन कहाँ हरता? ||8||

 

चित्त शुद्धी की विधि की क्षति को अतिक्रमण कहते, 

शीलबाड़ के उल्लंघन को व्यतिक्रमण कहते |

त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु! अतीचार कहते, 

विषयासक्तपने को जग में अनाचार कहते ||9||

 

शास्त्र पठन में मेरे द्वारा यदि जो कहीं- कहीं,

प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छुट गयी |

सरस्वती मेरी उस त्रुटी को कृपया क्षमा करें,

और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे ||10||

 

वांछित फलदात्री चिंतामणि सदृश मात! तेरा, 

वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा |

बोधि, समाधि, विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको,

मिले और मैं पा जाऊं माँ! मोक्ष-महासुख को ||11||

 

सब मुनिराजों के समूह भी जिनका ध्यान करें, 

सुरों-नरों के सारे स्वामी जिन गुणगान करें |

वेद, पुराण, शास्त्र भी जिनके गीतों के डेरे, 

वे देवों के देव विराजें उर में ही मेरे ||12||

 

जो अनंत-दृग-ज्ञान-स्वरूपी सुख-स्वभाव वाले,

भव के सभी विकारों से भी जो रहे निराले |

जो समाधि के विषयभूत हैं परमातम नामी,

वे देवों के देव विराजें मम उर में स्वामी ||13||

 

जो भव दुःख का जाल काट कर उत्तम सुख वरते,

अखिल विश्व के अंत: स्थल का अवलोकन करते |

जो निज में लवलीन हुए प्रभु ध्येय योगियों के,

वे देवों के देव विराजें मम उर के होके ||14||

 

मोक्षमार्ग के जो प्रतिपादक सब जग उपकारी 

जन्म मरण के संकट आदि से रहित निर्विकारी |

त्रिलोकदर्शी दिव्य-शरीरी सब कलंकनाशी

वे देवों के देव रहें मम उर में अविनाशी ||15||

 

आलिंगित हैं जिनके द्वारा जग के सब प्राणी 

वे रागादिक दोष न जिनके सर्वोत्तम ध्यानी |

इन्द्रिय-रहित परम-ज्ञानी जो अविचल अविनाशी 

वे देवों के देव रहें मम उर के ही वासी ||16||

 

जग-कल्याणी परिणिति से जो व्यापक गुण-राशि,

भावी-सिद्ध, विबुद्ध, जिनेश्वर, कर्म-पाश-नाशी |

जिसने ध्येय बनाया उसके सकल-दोष-हारी,

वे देवों के देव रहें मम उर में अविकारी ||17||

 

कर्म कलंक दोष भी जिनको न छू पाते,

ज्यों रवि के सन्मुख न कभी तम समूह आते |

नित्य निरंजन जो अनेक हैं और एक भी हैं,

उन अरहंत देव की मैंने सुखद शरण ली है ||18||

 

जगतप्रकाश जिनके रहते सूर्य प्रभाधारी,

किंचित भी ना शोभा पाता जिनवर अविकारी |

निज आतम में हैं जो सुस्थित ज्ञान-प्रभाशाली, 

उन अरहंत देव की मैंने सुखद शरण पा ली ||19||

 

जिनका दर्शन पा लेने पर प्रकट झलक आता, 

अखिल विश्व से भिन्न आतमा जो शाश्वत ज्ञाता |

शुद्ध, शांत, शिवरूप आदि या अंतविहीन बली,

उन अरिहंत देव की मुझको अनुपम शरण मिली ||20||

 

जो मद, मदन, ममत्व, शोक, भय, चिंता, दुःख, निद्रा, 

जीत चुके हैं निज-पौरुष से कहती जिन-मुद्रा |

ज्यों दावानल तरु-समूह को शीघ्र जला देता, 

उन अरिहंत देव की मैं भी सुखद शरण लेता ||21||

 

ना पलाल पाषाण न धरती हैं संस्तर कोई, 

न विधिपूर्वक रचित काठ का पाटा भी कोई |

कारण, इन्द्रिय वा कषाय रिपु जीते जो ध्यानी,

उसका आतम ही शुचि-संस्तर माने सब ज्ञानी ||22||

 

ना समाधि का साधन संस्तर न ही लोक पूजा, 

ना मुनि-संघों का सम्मेलन या कोई दूजा |

इसलिए हे भद्र! तुम सदा आत्मलीन बनो, 

तज बाहर की सभी वासना कुछ ना कहो-सुनो ||23||

 

पर-पदार्थ कोई ना मेरे थे, होंगे, ना हैं,

और कभी उनका त्रिकाल में हो पाउँगा मैं |

ऐसा निर्णय करके पर के चक्कर को छोड़ो,

स्वस्थ रहो नित भद्र! मुक्ति से तुम नाता जोड़ो ||24||

 

तुम अपने में अपना दर्शन करने वाले हो,

दर्शन-ज्ञानमयी शुद्धात्म पर से न्यारे हो |

जहाँ कहीं भी बैठे मुनिवर अविचल मन-धारी,

वहीँ समाधि लगे उनकी जो उनको अति-प्यारी ||25||

 

नित एकाकी मेरे आतम नित अविनाशी है, 

निर्मल दर्शन ज्ञान-स्वरूपी स्व-पर-प्रकाशी है |

देहादिक या रागादिक जो कर्म जनित दिखते,

क्षणभंगुर हैं वे सब मेरे कैसे हो सकते? ||26||

 

जहाँ देह से नही एकता जो जीवनसाथी, 

वहां मित्र सुत वनिता कैसे हो मेरे साथी |

इस काया के ऊपर से यदी चर्म निकल जाये, 

रोमछिद्र तब कैसे इसके बीच ठहर पाए ||27||

 

भव वन में संयोगों से यह संसारी-प्राणी, 

भोग रहा है कष्ट अनेकों कह न सके वाणी |

अतः त्याज्य है मन वच तन से वह संयोग सदा,

उसको, जिसको इष्ट हितैषी मुक्ति विगत विपदा ||28||

 

भव वन में पड़ने के कारण हैं विकल्प सारे, 

उनका जाल हटाकर पहुचों शिवपुर के द्वारे |

अपने शुद्धातम का दर्शन तुम करते-करते,

लीन रहो परमात्म तत्व में दुखों को हरते ||29||

 

किया गया जो कर्म पूर्व भव में स्वयं जीव द्वारा, 

उसका ही फल मिले शुभाशुभ अन्य नहीं चारा |

औरों के कारण यदि प्राणी सुख-दुःख को पाता,

तो निज-कर्म अवश्य स्वयं ही निष्फल हो जाता ||30||

 

अपने अजित कर्म बिना इस प्राणी को जग में,

कोई अन्य न सुख-दुःख देता कहीं किसी डग पे |

ऐसा अडिग विचार बना कर तुम निज को मोड़ो,

“अन्य मुझे सुख-दुःख देता है” ऐसी हठ छोड़ो ||31||

 

परमातम सबसे न्यारे हैं, अतिशय अविकारी, 

संत अमितगति से वन्दित हैं शम दम समधारी |

जो भी भव्य मनुज प्रभुवर को नित उर में लाते,

वे ही निश्चित उत्तम वैभव मोक्ष महल पाते ||32||

 

दोहा

जो ध्याता जगदीश को, ले यह पद बत्तीस |

अचल-चित्त होकर वही, बने अचलपद ईश ||33||