पूर्णोदय दोहावली



उच्च कुलो में जन्म ले, नदी निम्नगा होय।

शांति, पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय ॥1॥

 

एक साथ सब कर्म का उदय कभी ना होय।

बूँद-बूँद कर बरसते, घन, वरना सब खोय ॥2॥

 

आत्मामृत तज विषय में, रमता क्यों यह लोक।

खून चूसती दुग्ध तज, गौ-थन में क्‍यों जोंक ॥3॥

 

जठरानल अनुसार हो, भोजन का परिणाम।

भावों के अनुसार ही, कर्म बन्ध-फल-काम ॥4॥

 

शील नशीले द्रव्य के, सेवन से नश जाय।

संत-शास्त्र-संगति करे, और शील कस जाय ॥5॥

 

एक तरफ से मित्रता, सही नहीं वह मित्र।

अनल पवन का मित्र ना, पवन अनल का मित्र ॥6॥

 

वश में हो सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम।

वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ॥7॥

 

विगत अनागत आज का, हो सकता श्रद्धान।

शुद्धातम का ध्यान तो , घर में कभी न मान ॥8॥

 

संतो के आगमन से, सुख का रहे न पार।

संतो का जब गमन हो, लगता जगत असार ॥9॥

 

नीर नीर है क्षीर ना, क्षीर क्षीर ना नीर।

चीर चीर है जीव ना, जीव जीव ना चीर ॥10॥

 

बान्धव रिपु को सम गिनो, संतों की यह बात।

फूल चुभन क्या ज्ञात है? शूल चुभन तो ज्ञात ॥11॥

 

नाम बने परिणाम तो, प्रमाण बनता मान।

उपसर्गो से क्यों डरो, पार्श्व बने भगवान ॥12॥

 

आप अधर मैं भी अधर, आप स्व वश हो देव।

मुझे अधर में लो उठा, परवश हूँ दुर्देव ॥13॥

 

व्यास बिना वह केन्द्र ना, केन्द्र बिना ना व्यास।

परिधि तथा उस केन्द्र का, नाता जोड़े व्यास ॥14॥

 

केन्द्र रहा सो द्रव्य है, और रहा गुण व्यास।

परिधि रही पर्याय है, तीनों में व्यत्यास ॥15॥

 

व्यास केन्द्र या परिधि को, बना यथोचित केन्द्र।

बिना हठाग्रह निरख तू, निज में यथा जिनेन्द्र ॥16॥

 

विषम पित्त” का फल रहा, मुख का कड़वा स्वाद।

विषम वित्त" से चित्त में बढ़ता है उन्माद ॥17॥

 

कानों से तो हो सुना, आँखों देखा हाल।

फिर भी मुख से ना कहे, सजन का यह ढाल ॥18॥

 

बाल गले में पहुँचते, स्वर का होता भंग।

बाल गेल में पहुँचते, पथ दूषित हो संघ ॥19॥

 

चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर।

लोक-हितैषी बस बनूँ, सदा लोक से पूर॥20॥