सामायिक



सामायिक महिमा 

समय का सदुपयोग  करना सामायिक है। समता भाव में रमण करना सामायिक है। निज में निज का- रमण होना सामायिक है। सामायिक एक़ ऐसी कसौटी है जिस पर कसकर आत्मा पवित्र होती है। कर्म पहाड़ को हिलाने में यदि कोई समर्थ है तो वह सामायिक है। सामायिक जैन धर्म का प्राण है। सामायिक एक ऐसी साधना है। जिस साधना से साध्य की प्राप्ति सहज होती है। सामायिक साधना की मंजिल है, सामायिक रास्तो का रास्ता है, समाधानों का समाधान है, शांत मनः स्थिति का नाम सामयिक है मन  की उथल पुथल असामयिक है और मन के सरोवर का शांत निस्तरंग सामायिक होना है।

 सामायिक विधि 

है भगवान ! उर्घ्वलोक में अनन्तानन्द सिद्ध परमेष्ठी विराजमान है उनके चरण कमलों में हमारा मन से वचन से काय से, अत्यन्त भक्ति भाव से महाभक्ति भाव से सबको एक साथ प्रत्येक को अलग अलग बारम्बार नमस्कार हो। 

है भगवान ! पूर्व दिशा में विदिशाओं में, जितने भी अरिहंत, सिद्ध, साधु विराजमान है। जितने भी कृत्रिम अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय है। जितने भी सिद्ध क्षेत्र है अतिशय क्षेत्र है उन सबको मन से वचन से काय से,अत्यन्त भक्ति भाव से महाभक्ति भाव से सबको एक साथ प्रत्येक को अलग अलग बारम्बार नमस्कार हो। 

है भगवान! दक्षिण दिशा में विदिशाओं मे जितने भी अरिहन्त, सिद्ध, साधु विराजमान है। जितने भी कृत्रिम अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय है। जितने भी सिद्ध क्षेत्र है अतिशय क्षेत्र है उन सबको मन से वचन से काय से,अत्यन्त भक्ति भाव से महाभक्ति भाव से सबको एक साथ प्रत्येक को अलग अलग बारम्बार नमस्कार हो।

है भगवान! पश्चिम दिशा में विदिशाओं में जितने भी अरिहन्त, सिद्ध, साधु विराजमान है। जितने भी कृत्रिम अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय है। जितने भी सिद्ध क्षेत्र है अतिशय क्षेत्र है उन सबको मन से वचन से काय से,अत्यन्त भक्ति भाव से महाभक्ति भाव से सबको एक साथ प्रत्येक को अलग अलग बारम्बार नमस्कार हो।

है भगवान! उत्तर दिशा में विदिशाओं में जितने भी अरिहन्त, सिद्ध ,साधु विराजमान है। जितने भी कृत्रिम अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय है। जितने भी सिद्ध क्षेत्र है अतिशय क्षेत्र है उन सबको मन से वचन से काय से, अत्यन्त भक्ति भाव से महाभक्ति भाव से सबको एक साथ प्रत्येक को अलग अलग बारम्बार नमस्कार हो।

है भगवान! जब तक मैं सामयिक अवस्था में रहूंगा तब तक सम्पूर्ण सांसारिक आरम्भ का त्याग करता रहूंगा। 

जब तक में सामयिक अवस्था में रहूँगा तब तक चारो दिशांओं में विदिशाओं में गमनागमन करने का त्याग करता हूँ।

जब तक मैं सांसारिक अवस्था में रहूँगा तब तक सामायिक शब्दों को छोड़ अन्य सांसारिक चर्चाओं का त्याग कर मौन पूर्वक सामायिक ग्रहण करता हूँ। 

नो बार णमोकार मंत्र का स्मरण करे।

 

सामायिक पाठ 

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनोंमें हर्ष प्रभो।

करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥(1)

 

यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो।

ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥(2)

 

सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो।

वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥(3)

 

जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ।

वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥(4)

 

एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की यदि मैंने हिंसा की हो।

शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो॥(5)

 

मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से।

विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥(6)

 

चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त।

अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥(7)

 

सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया।

व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥(8)

 

कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया।

पी पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥(9)

 

मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया।

परनिन्दा गाली चुगली जो मुँह पर आया वमन किया॥(10)

 

निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे।

निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे॥(11)

 

मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे।

गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे॥(12)

 

दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये।

परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे॥(13)

 

जो भव दुख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान।

योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान्॥(14)

 

मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत।

निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शी वह देव रहे मम हृदय समीप॥(15)

 

निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे।

शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावी, परम देव मम हृदय रहे॥(16)

 

देख रहा जो निखिल विश्व को कर्म कलंक विहीन विचित्र।

स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह देव करें मम हृदय पवित्र॥(17)

 

कर्म कलंक अछूत न जिसका कभी छू सके दिव्य प्रकाश।

मोह तिमिर को भेद चला जो परम शरण मुझको वह आप्त॥(18)

 

जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश।

स्वयं ज्ञानमय स्व पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त॥(19)

 

जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ।

आदि अन्तसे रहित शान्तशिव, परम शरण मुझको वह आप्त॥(20)

 

जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव।

भय विषाद चिन्ता नहीं जिनको, परम शरण मुझको वह देव॥(21)

 

तृण, चौकी, शिल, शैलशिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन।

संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन॥(22)

 

इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम।

हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम॥(23)

 

बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।

यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥(24)

 

अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।

जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥(25)

 

अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है।

जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥(26)

 

तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे।

चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥(27)

 

महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ, जड़-देह संयोग।

मोक्षमहल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग॥(28)

 

जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़।

निर्विकल्प निद्र्वन्द्व आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो॥(29)

 

स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते।

करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते॥(30)

 

अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी।

पर देता है’ यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि॥(31)

 

निर्मल, सत्य, शिवं सुन्दर है, ‘अमितगति’ वह देव महान।

शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण॥(32)

 

आलोचना पाठ

दोहा 

पंच परम पद को सदा करता रहू प्रणाम। 

चौबीसो जिनराज के गुण गाउँ अभिराम।।

 

प्रतिदिन कर मैं आलोचन, शिव पाऊँ संकट मोचन।

बनते नित दोष घनेरे, जिन मध्य व सांझ सबरेरे।।

 

इससे हम शरण तुम्हारे, आये मेटो दुख सारें।

दीनों के नाथ तुम्हीं हो, अशरण के शरण तुम्हीं हो।।

 

दुखियों को मैने सताया, उनके दुख में सुख पाया।

उनको बहु दुःख दिलाया, फिर भी मै नाहिं लजाया।।

 

सच बोलना पाप समझकर ठगता पर को हँस हँसकर।

चोरी का द्रव्य जु आया, उसको रख पाप,कमाया।।

 

अरू शील स्तन मैं खोकर, नचता बहु परिग्रह ढोकर।

कर क्रोध किया मन माना, माया में हित पहिचाना ।।

 

लालच को गले लगाया, मृदुता को दूर भगाया।

मैं देव कुदेव न समझा, सबके जालों में उलझा।।

 

नदियों में पुण्य समझकर, नित स्नान किया मलमलकर । 

गुरू मान नहीं गुण गाया, जिन शास्त्र नहीं सुन पाया॥।

 

 मन इन्द्रियों के वश होकर, करता अपना हित खोकर।

मन माना निशदिन खाया, हिंसा का पाप कमाया।।

 

पीकर छाने बिन पानी, कर बैठा में अनजानी।

ईर्ष्या कर चित्त जलाया, विद्या मद में भरवाया।।

 

प्रभुता धन मद का. प्याला, पीकर हूँ मैं मतवाला।

 जिन दर्शन करना भूला, झूला मै पाप का झूला।।

 

करूणा का भाव न जागा, समता में चिंत्त न पागा।

मैत्री कर पुण्य न पाया, कर दान नहीं हर्षाया।।

 

पर का उपकार न बनता, सुख में इस हेतु कठिनता।

प्रमु॒ मेरी ऐसी म॒ति हो, शुभ कर्म करूँ शुभ गति हो।।

 

जिन धर्म का तेज बढ़ाऊ, सुखिया जग को मैं पाऊँ ।

सबके सुख में सुख  मानूँ निज जन्म सफल तब मानूँ॥

दोहा

तुम शंकर विष्णु हो ब्रह्मा बुद्ध जिनेश। 

विघ्न जाल काटो पतित में हु तुम पतिपेश ।।

 

णमोकार मंत्र की एक माला फेरे 

या

ॐ हीं अर्ह असि आउ सा नमः

की एक माला फेरे।

 

बारह भावनाओ का चिंतन

(१) अनित्य भावना 

जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी। 

इन्द्रिय भोग वहीं थाई, सुरधन चपला चपलाई।।

(२) अशरण भावना

सुर असुर खगाधिप जेते, मृगे ज्यो हरी काल दले ते। 

मणि मंत्र तंत्र बहु होइ, मरते न बचावे कोई।।

(३) संसार भावना 

चहु गति जीव भरे है, परिवर्तन पंच करे है। 

सब विधि संसार असारा, यमे सुख नहीं लगारा।।

(४) एकत्व भावना

शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक ही तेते। 

सूत दारा होय न सीरी सब स्वारथ के है भीरी।।

(५) अन्यत्व भावना

जल पल ज्यो जिय तन मेला, पे भिन्न भिन्न नहीं भेला । 

तो प्रगट जुटे धन धामा, क्यों है मिली इक सूत रामा।।

(६) अशुचि भावना

पल रुधिर राल मल थैली, किकस वसादि ते मैली। 

नव द्वार है घिनकारी, अस देह करे किम यारी।।

(७) आस्रव भावना

जो योगन की चपलाई, ताते हो आस्रव भाई। 

आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिबंत तिन्हे निरवेरे।।

(८) संवर भावना

जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुमव चित दिना।

तिनहीं विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोक।।

(९) निर्जरा भावना 

निज काल पाय विधि झरना, तासों निजकाज न सरना।

तप करि जो कर्म: खपावै, सोई शिवसुख दरसावे।।

(१०) लोक भावना 

किनहू न करै न धरे को, षट द्रव्य मयी न हरै को।

सो लौक माहि बिनसमता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।

(११) बोधि दुर्लभ भावना

अंतिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनंत विरियां पद।

पर सम्यक ज्ञान न लाधो, दुर्लभ निज में मुनि साधो।

(१२) धर्म भावना 

जो भाव मोहते न्यारे ,दृग ज्ञान व्रतादिक सारे। 

सो धर्म जबे जिय धारे, तब ही सुख अचल निहारे।। 

 

 अमूल्य तत्व विचार 

बहु पुण्य पुंज प्रसंग से, शुभ देह  मानव का मिला।

 तो भी अरे भव चक्र का, फेरा न एक कभी टला।।

 

सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुख जाता दूर है।

 तू क्यों भयंकर भावमरण, प्रवाह में चकचूर है।।

 

लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये।

परिवार और कुदुम्ब है क्या, वृद्वि कुछ नहीं मानियें।।

 

संसार का बढ़ना अरे! नरदेह की-यह हार है।

नहीं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार है।।

 

निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द लो जहाँ भी प्राप्त हो।'

वह दिव्य अन्त: तत्व जिससे, बंधनों से मुक्त हो |

 

परवस्तु में मूर्छित न हो; इसकी रहे मुझको दया।

वह सुख सदा ही त्याज्य रें पश्चात्‌ जिसके दुख भरा।।

 

मैं कोन हूँ आया कहां से! और मेरा रूप क्या?

संबंध दुखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या ?

 

इसका विचार विवेक पूर्वक, शांत होकर कीजिये।

तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धान्त का-रस पीजिये।।

 

जिसका वचन उस तत्व की, उपलब्धि में शिवभूत है। 

निर्दोष नर का वचन रे, वह स्कानुभूति प्रसूत है।।

 

तारों अहो तारो निजात्मा, शीघ्र अनुमव कीजिये।

सर्वात्म में समदृष्टि दो यह वच हृदय लख लीजिये।।

 

आत्मस्वरूप (६ बार) 

सहजनान्दी शुद्धस्वरूपी, अविनाशी में आत्मस्वरूप

(माघनंदी आचार्यकृत ध्यानसूत्र) 

शुद्ध चिद्रपौहं नित्यानंद स्वरूपोहं, शुद्धोहं, बुद्धोहं,अनंत चतुष्ठय स्वरूपोहं निरंजनोहं शल्यत्रयरहितोहं केवलज्ञानस्वरूपोहं केवल दर्शन स्वरूपोहं नोकर्मरहितोहं द्रव्य कर्मरहितोहं भाव कर्मरहितोहं अनंतज्ञानस्वरूपोहं अनंतदर्शन स्वरूपोहं अनंत सुख स्वरूपोहं अनंत वीर्य स्वरूपोहं मिथ्यात्वत्रय रहितोहं आनंद स्वरूपपोहं निर्विकल्प स्वरूपपोहं स्पर्श रस गंध वर्ण रहितोहं क्रोध मान माया लोभ रहितोहं राग द्वेष मोह रहितोहं पंचेन्द्रिय व्यापार शुण्योहं सोऽहं आत्मस्वरूपपोहं। 

उपरोक्त आत्म गुणों में से किसी भी एक विषय पर कम से कम पांच मिनिट चिंतन करे।

 

सामयिक चिन्तवन

है आत्मन! तुम शास्वत रत्नत्रय निधि के स्वामी हो अनन्त सुख शान्ति सन्तोष के भण्डार हो। अपनी निधि को घर्म पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त करो। |

हे आत्मन! तुम सिद्ध के समान शुद्ध हो, चेतन्य के पुंज हो अनन्त शक्ति के धनी हो, तुम सबको जानने, देखने वाले स्वयं दुनिया के सुन्दरत्‌ पदार्थ हो।

तुम स्वयं सुन्दर हो जिसका कोई रूप नहीं ऐसे अरूपी अमूर्तिक हो,अपने सुन्दर रूप को टटोलो, खोजो जरूर दर्शन पाओगे, पा गये तो तृप्त हो जाओगे।

हे आत्मन! जिसे तुम बाहर देख रहे हो वह जड़ है, नश्वर है!देखने वाले तुम तो अपने अन्दर छिपे हुए हो। अपने को अपने में अपने से अभिन्‍न चिदानन्द प्रभु को निहारो है मुक्ति पथ के राही। बाहर तुम-किस की आवाज सुनना चाह रहे हो। कर्णप्रिय मधुर संगीत को। क्या यही कर्णो का सौन्दर्य है? नहीं तुम्हें अंतरात्मा पुकार रही है उसकी मधुरिम कर्मक्षयकारिणी,सुन्दर आत्मानन्द दायिनी, सहजानन्द दायिनी आवाज सुनो।

आत्म कीर्तन

हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम। टेक।

 मैं वह हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान।

अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग-वितान॥ १॥

 

मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति-सुख-ज्ञान-निधान।

किन्तु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान॥2 ॥

 

सुख-दुख-दाता कोई न आन, मोह-राग-रुष दुख की खान।

निज को निज, पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान॥3 ॥

 

जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि जिनके नाम।

राग त्यागि पहुँचूँ निज धाम, आकुलता का फिर क्या काम॥4 ॥

 

होता स्वयं जगत-परिणाम, मैं जग का करता क्या काम ।

दूर हटो पर-कृत परिणाम, सहजानन्द रहूँ अभिराम॥ ५॥

 

समाधि भावना

दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ,

देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊँ । टेक।

 

शत्रु अगर कोई हो, संतुष्ट उनको कर दूँ,

समता का भाव धर कर, सबसे क्षमा कराऊँ ।१।

 

त्यागूँ आहार पानी, औषध विचार अवसर,

टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में लाऊँ ।२।

 

जागें नहीं कषाएँ, नहीं वेदना सतावे,

तुमसे ही लौ लगी हो, दुर्ध्यान को भगाऊँ ।३।

 

आत्म स्वरूप अथवा, आराधना विचारूँ,

अरहंत सिद्ध साधूँ, रटना यही लगाऊँ ।४।

 

धरमात्मा निकट हों, चर्चा धरम सुनावें,

वे सावधान रक्खें, गाफिल न होने पाऊँ ।५।

 

जीने की हो न इच्छा , मरने की हो न वाँछा,

परिवार मित्र जन से, मैं मोह को हटाऊँ ।६।

 

भोगे जो भोग पहिले, उनका न होवे सुमिरन,

मैं राज्य संपदा या,पद इंद्र का न चाहूँ ।७।

 

रत्नत्रय का पालन, हो अंत में समाधि,

‘शिवराम’प्रार्थना यह, जीवन सफल बनाऊँ ।८।

 

दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ,

देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊँ । टेक।

 

प्रार्थना 

है भगवन ! प्राणी मात्र के प्रति मेरे ह्रदय में सदा मैत्री भाव रहे। 

गुणी जनो को देखकर मेरे ह्रदय में सदा प्रमोद भाव रहे। 

दुखी एवं कष्ट जनो को देखकर मेरे ह्रदय में सदा करुणामय भाव रहे।

अपने से विपरीत चलने वालो के प्रति  मेरे ह्रदय में सदा माध्यस्थ भाव रहे।

है भगवन ! मेरे दुःखो का क्षय हो कर्मो का क्षय हो, बोधि की प्राप्ति हो समाधिकरण हो जिनेन्द्र भगवान के जिनरूपी रत्नो की मुझे प्राप्ति हो। 

है भगवन ! जब तक मुझे मोक्ष प्राप्ति न हो तब तक आपके चरणकमल मेरे ह्रदय में और मेरा ह्रदय आपके चरणों में सदा रहे।  

है भगवन ! सामायिक अवस्था में मेरे मन वचन काय की चंचलता से जो भी दोष लगे हो। वे सब आपकी भक्ति के प्रसाद मिथ्या होवें।

नो बार णमोकार मंत्र 

है भगवान! चारो दिशा में विदिशाओं में जितने भी अरिहन्त, सिद्ध, साधु विराजमान है। जितने भी कृत्रिम अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय है। जितने भी सिद्ध क्षेत्र है अतिशय क्षेत्र है उनको हमारा मन से वचन से काय से बारम्बार नमस्कार हो।

ॐ  हीं अर्ह असि आउ सा नमः

ॐ  हीं उत्तम क्षमादि दश लक्षण नमो नमः 

नो बार णमोकार मंत्र का ध्यान करे। 

ॐ नमः

 

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति

by Sudhir jain at 08:03 AM, Jan 07, 2024

Dhanyawad 🙏

by Admin at 08:23 PM, Jan 07, 2024

,🙏🙏🙏🙏🙏

by Anshita at 06:01 PM, Oct 07, 2020

🙏🙏🙏🙏

by Prachi jain at 07:07 PM, Oct 05, 2020

Thankyou so much ...🙏🙏🙏

by Prachi jain at 07:06 PM, Oct 05, 2020