श्रुत पंचमी पर्व कथा



वीर निर्वाण संवत 614 में आचार्य धरसेन काठियावाड स्थित गिरिनगर (गिरनारपर्वत) की चन्द्रगुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गये थे और अपना जीवन अल्प जाना, तब श्रुत की रक्षार्थ उन्होंने महिमानगरी में एकत्रित मुनिसंघ के पास एक पत्र भेजा। तब मुनि संघ ने पत्र पढ कर दो मुनियों को गिरनार भेज दिया। वे मुनि विद्याग्रहण करने में तथा उनका स्मरण रखने में समर्थ, अत्यंत विनयी, शीलवान तथा समस्त कलाओं मे पारंगत थे।

जब वे दोनों मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे तब धरसेनाचार्य ने एक स्वप्न देखा कि दो वृषभ आकर उन्हें विनयपूर्वक वन्दना कर रहे हैं। उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दो मुनि विनयवान एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। तब उनके मुख से अनायास ही “जयदु सुय देवदा” अर्थात् श्रुत की जय हो ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकल पडे। दूसरे दिन दोनों मुनिवर वहाॅ आ पहुॅचे और विनय पूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वंदना की। दो दिन पश्चात श्रीधरसेनाचार्य ने विद्यामंत्र देकर उनकी परीक्षा की। एक को अधिकाक्षरी मंत्र (एक अक्षर अधिक वाला) और दूसरे को हीनाक्षरी (एक अक्षर न्यून वाला) विद्यामंत्र देकर उपवास सहित साधने को कहा। ये दोनों मुनिराज गुरु के द्वारा दिये गये विद्यामंत्र को लेकर उनकी आज्ञा से नेमिनाथ तीर्थकर की सिद्धभूमि पर जाकर नियमपूर्वक अपनी-अपनी विद्या को सिद्ध करने लगे। जब उनकी विद्या सिद्ध हो गयी ता वहाँ पर उनके सामने दो देवियाँ प्रकट हुई। उनमें से एक देवी की एक ही आँख थी तो दूसरी देवी के दाँत बडे-बडे थे।

देवियों को देखते ही मुनियों ने समझ लिया कि निश्चित ही मंत्र में कोई त्रुटि है और त्रुटि को शुद्ध कर उन्होने पुनः विद्यामंत्र सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। जिसके फलस्वरूप देवियाँ अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुई तथा बोलीं हे नाथ! आज्ञा दीजिये – हम आपका क्या कार्य करें। तब मुनियों ने कहा- देवियों! हमारा कुछ भी कार्य नहीं है। हमने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से ही विद्यामंत्र की आराधना की है। ये सुनकर दोनों देवियाँ अपने स्थान पर चली गयीं।

आचार्यश्री को उनकी सुपात्रता पर विश्वास हो गया। अतः उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्हें सैद्धान्तिक देशना दी। यह श्रुत अभ्यास आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने 6 हजार श्लोक प्रमाण 6 खण्ड बनाये। 1.जीवस्थान 2.क्षुद्रकबंध 3.बन्धस्वामित्व 4.वेदनाखण्ड 5.वर्गणाखण्ड और 6.महाबन्ध।

 आचार्य भूतवलि और आचार्य पुष्पदन्त ने धरसेनाचार्य की सैद्धान्तिक देशना को श्रुतज्ञान द्वारा स्मरण कर उसे षट्खण्डागम नामक महान जैन परमागम के रूप में रचकर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन प्रस्तुत किया। इस शुभ अवसर पर अनेक देवी-देवताओं ने तीर्थंकरों की द्वादशांग वाणी के अंतर्गत महामंत्र णमोकार से युक्त जैन परमागम षट्खण्डागम की पूजा की तथा सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इस दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परम्परा के रूप में प्रारंभ किया गया। अतः यह दिवस शास्त्र उन्नयन के अंतर्गत श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

श्रुत और ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी, आराधना और प्रभावना का सन्देश देता है। इस दिन श्री धवल, महाधवलादि ग्रंथों को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिये। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिये। शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये।