सुभौम चक्रवर्ती और णमोकार मंत्र प्रभाव



आठवें चक्रवर्ती सुभौम के रसोइये का नमा जयसेन था। एक दिन भोजन के समय इस पाचक ने चक्रवर्ती के आगे गरम-गरम खीर परोस दी। गरम खीर से चक्रवर्ती का मुंह जलने लगा; जिससे क्रोध मेें आकर खीर के रखे हुए बर्तन को उस पाचक के सिर पर पटक दिया जिससे उसका सिर जल गया। वह इस कष्ट से मरकर लवणसमुद्र में व्यन्तर देव हुआ।

जब उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की जानकारी प्राप्त की तो उसे चक्रवर्ती के ऊपर बड़ा क्रोध आया। प्रतिहिंसा की भावना से उसका शरीर जलने लगा। अत वह तपस्वी का वेष बनाकर चक्रवर्ती के यहां पहुंचा। उसके हाथ में कुछ मधुर ओर सुन्दर फल थे। उसने उन फलों को चक्रवर्ती को दिया, वह फल खाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

उन्होंने उस तापसी से कहा-‘‘महाराज, ये फल अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट है। आप इन्हें कहां से लये हैं और ये कहां मिलेंगे।’’ तपास रूपधीर व्यन्तर देव ने कहा-‘‘समुद्र के बीच में एक छोटा-सा टापू है। मैं वही निवास करता हूँ। यदि आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घर पधारें तो ऐसे अनेक फल भेंट करूँ।

’’ चक्रवर्ती जिहृा के लोभ में फंस कर व्यन्तर के झांसे में आ गये और उसके साथ चल दिये। जब व्यन्तर समुद्र के बीच में पहुंचा तब वह अपने प्रकृत रूप में प्रकट होकर लाल-लाल आंखें कर बोला-‘‘दुष्ट, जानता है, मैं तुझे यहां क्यों लाया हूँ। मैं ही तेरे उस पाचक का जीव हूँ जिसे तूने निर्दयता पूर्वक मार डाला था। अभिमान सदा किसी का नहीं रहता। मैं तुझे उसी का बदला चुकाने के लिए लाया हूँ।’’ व्यन्तर के इन वचनों को सुनकर चक्रवर्ती भयभीत हुआ और मन-ही-मन णमोकार मंत्र का ध्यान करने लगा।

इस महामंत्र के सामथ्र्य के समक्ष उस व्यन्तर की शक्ति काम नहीं कर सकी। अतः उस व्यन्तर ने पुनः चक्रवर्ती से कहा-‘‘यदि आप अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं तो पानी में णमोकार मंत्र को लिखकर उसे पैर के अंगूठे से मिटा दें। मैं इसी शर्त के ऊपर आपको जीवित छोड़ सकता हूँ। अन्यथा आप का मरण निश्चित है।’’ प्राण रक्षा के लिए मनुष्य को भले-बुरे का विचार नहीं रहता; यही दशा चक्रवर्ती की हुई। व्यन्तरदेव के कथानानुसार उसने णमोकार मंत्र को लिखकर पैर के अंगूठे से मिटा दिया। उनके उक्त क्रिया सम्पन्न करते ही, व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया। क्योंकि इस कृत्य के पूर्व वह णमोकार मंत्र के श्रद्धानी को मारने का साहस नही कर सकता था। अतः उस समय जिन शासनदेव उस व्यन्तर के इस अन्याय को रोक सकते थे किन्तु णमोकार मंत्र के मिटा देने से व्यन्तरदेव ने समझ लिया था धर्म-द्वेषी है, भगवान् का भक्त नहीं। श्रद्धा या अटूट विश्वास इसमें नहीं है। अतः उस व्यन्तर ने उसे मार डाला।

णमोकार मंत्र के कारण उसे सप्तम नरक की प्राप्ति हुई।

जो व्यक्ति णमोकार मंत्र के दृढ़ ज्ञानी हैं, उनकी आत्मा में इतनी अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे भूत, प्रेत, पिशाच आदि उनका बाल भी बांका नहीं कर पाते। आत्मस्वरूप इस मंत्र का श्रद्धान संसार से पार उतारने वाला है तथा सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का प्रधान हेतु है। शान्ति, सुख और समता का कारण यही महामन्त्र है।