सम्यकदर्शन के अंग



सम्यग्दृष्टि को शुद्धात्मा की अनुभूतिसहित आठ अंगों का पालन होता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्रस्वामी ने इन आठ अंगों का पालन करने में प्रसिद्ध आठ जीवों का उदाहरण दिया है, वह निम्नानुसार है।

१.अंजन निरंजन हुए उनने नहीं शंका चित धरी।।

२.बाई अनंतमती सती ने विषय आशा परिहरी ॥

३.सज्जन उदायन नृपतिवरने ग्लानि जीती भाव से।।

४.सत् असत् का किया निर्णय रेवती ने चाव से।।

५.जिनभक्तजी ने चोर का वह महादूषण ढँक दिया।।

६.जब वारिषेणमुनीश मुनि के चपल चित को थिर किया ॥

७.सु विष्णुकुमार कृपालु ने मुनिसंघ की रक्षा करी।।

८.जय वज्रमुनि जयवंत तुमसे धर्ममहिमा विस्तरी।।

सम्यक दर्शन के ८ (8) अंग होते हैं। इनमें से यदि एक भी अंग नहीं हो तो वह संसार परम्परा का नाश नहीं कर सकता है। जैसे किसी मंत्र में यदि एक अक्षर या मात्रा कम हो तो वह प्रभावशील नहीं होता है। ये आठ अंग निम्नानुसार है :-

१. निःशंकित अंग:- तत्व ऐसा ही है इसमें शंका नहीं करना निःशंकित अंग है। जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शंका नहीं करना चाहिये।

 

२. निष्कांक्षित अंग:- संसार सुखों की चाह नहीं करना निष्कांक्षित अंग है। संसार में सुख - दुःख आदि कर्मों के अधीन हैं । सम्यक दृष्टि जीव संसार सुखों की आकांक्षा नहीं करके मोक्ष की प्राप्ति हेतु तप, व्रत आदि क्रियायें करता है।

 

३. निर्विचिकित्सा अंग:- जो रत्नत्रय से पवित्र है, ऐसे मुनियों के शरीर को देख कर ग्लानि नहीं करना, उनके गुणों में प्रतीति करना निर्विचिकित्सा अंग है।

 

४. अमूढ़ दृष्टि अंग:- अमूढ़ता का अर्थ मूढ़ता का नहीं होना है अर्थात यथार्थ दृष्टि रखना है। सच्चे देव शास्त्र गुरु के सिध्दान्तों के प्रति यथार्थ दृष्टि कोण रखना और मिथ्या मार्ग पर चलने वालों से सम्पर्क नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना व उन्हें सन्मति नहीं देना इसी अंग में आता है।

 

५. उपगूहन अंग:- मोक्ष मार्ग पर चलने वाले साधक के द्वारा अज्ञानता या असावधानी वश कोई गलती हो जावे तो उसे ढक लेना अर्थात प्रकट नहीं होने देना उपगूहन अंग है।

 

६. स्थितिकरण अंग:- धर्म और चारित्र से कोई चलायमान हो रहा हो तो उसे प्रेम से समझाकर कर धर्म मार्ग पर स्थिर करना स्थितिकरण अंग है।

 

७. वात्सल्य अंग:- मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका तथा सह धर्मी बन्धुओं का सद्भावना पूर्वक यथायोग्य आदर सत्कार करना वात्सल्य अंग है।

 

८. प्रभावना अंग:- जैन धर्म की महिमा को फैलाना प्रभावना अंग है। पूजन, विधान, रथ यात्रा, दान, ध्यान, तपश्चरण आदि कार्यों से जैन धर्म को फैलाना ताकि अज्ञानता रूपी अन्धकार को हटाया जा सके इस अंग के अन्तर्गत आता है।