जैन प्रतीक चिन्ह : परस्परोपग्रहो जीवानाम् का संक्षिप्त विवरण



परस्परोपग्रहो जीवानाम् का अर्थ 

जैन प्रतीक चिन्ह : परस्परोपग्रहो जीवानाम् परस्परोपग्रहो जीवानाम् संस्कृत भाषा में लिखे गए प्रथम जैन ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र का एक श्लोक है । इसका अर्थ होता है: "जीवों के परस्पर में उपकार हैं।" सभी जीव एक दूसरे पर आश्रित है।

प्रतीक चिन्ह की स्वीकृति

परस्परोपग्रहो जीवानाम् जैन धर्म का आदर्श-वाक्य है। यह जैन प्रतीक चिन्ह के अंत में लिखा जाता है। यह जैन सिंद्धांत अहिंसा पर आधारित है। जैन धर्म के सभी आम्नायों के मानने वालों का प्रतीकात्मक कोई चिन्ह नहीं था। भगवान महावीर के 2500वे निर्वाण वर्ष को 1974-75 ई. में संयम से मनाने का आयोजन किया जाने लगा तब सभी आम्नायों के धर्म प्रमुखों ने मिलकर विचार किया कि जैन धर्म के सभी अनुयायियों का एक ऐसा प्रतीक हो जो सभी आम्नायों द्वारा निर्विरोध स्वीकार किया जाये और किसी की भी मान्यता को उससे ठेस न पहुँचे। काफी विचार विमर्श के बाद उपरोक्त प्रतीक सभी ने स्वीकार किया।

प्रतीक चिन्ह का विवरण

जैन मान्यता के अनुसार तीन लोक हैं जिन्हें त्रिलोक कहते हैं। उध्व लोक, मध्य लोक एवं पाताल लोक। इन तीनों लोको के मिलने पर जो स्वरूप बनता है वह कमर पर दोनों हाथ रखे एवं पैर फैलाकर खड़े एक आदमी के स्वरूप के समान होता है। प्रतीक की बाहरी रेखा इसी त्रिलोक का स्वरूप है। प्रतीक के नीचे भाग में अभय मुद्रा में एक हाथ, जिसके मध्य धर्म चक्र एवं उसके बीच अहिंसा शब्द लिखा होता है अर्थात मानव अहिंसा का आचरण कर धर्म को प्रवर्तित करे और लोगों को अभय प्रदान करें - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। उसके ऊपर स्वास्तिक है जो चारों गति का द्योतक है - देव, मनुष्य, तिर्यच एवं नारकीय। तीन बिन्दुओं के ऊपर चन्द्रमा का चिन्ह सिद्ध भूमि का द्योतक है जिसके ऊपर एक बिन्दु है जो सिद्ध जीव आवागमन के चक्कर से मुक्त है।

 

Jain dharm મોક્ષ નો દ્વાર છે

by Ramanbhai at 10:02 PM, Oct 27, 2022

बिल्कुल सही कहा आपने 🙏🙏

by Admin at 02:08 PM, Oct 28, 2022