मंगलाचरण का विश्लेषणात्मक अध्ययन



 मंगलाचरण - परिभाषा -

मंगल ' शब्द कल्याणकारी एवं शुभ सूचक शब्द है । किसी भी शुभकार्य के प्रारंभ में मंगलरूप आचरण करना मंगलाचरण है । ग्रंथ जन हितार्थ लिखा एवं पढ़ा जाता है । अत: उसको प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण का निर्वाह किया जाता है । मंगलाचरण में अपने इष्टदेवको याद कर उनको प्रणाम किया जाता है । मंगलाचरण में प्राय: पंचपरमेष्ठी या रत्नत्रय प्रदाता देव, शास्त्र और गुरू के गुणों की स्तुति की जाती है । इससे कषायों की मन्दता होती है और शुभ राग एवं पुण्य प्राप्त होता है । मंगलाचरण करने से परिणामों में निर्मलता आती है । मंगल आचरण करने से सारे पाप दूर होते हैं ।  मंगलाचरण करने का प्रयोजन किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में मंगल आचरण करना मंगलाचरण कहलाता है ।                 

मंगलाचरण करने का  उपदेश 

हमारे जीवन में आध्यात्मिक साधना का जो परम लक्ष्य है वही लक्ष्य,उद्देश्य,प्रतिफल इस स्तुति - वंदना स्वरूप मंगलाचरण का भी है । स्तुति, वंदना स्वरूप मंगलाचरण में देव, शास्त्र, गुरु या पंचपरमेष्ठी या नव देवता या तीर्थकर का गुणानुवाद किया जाता है । अशुभ, विकार भाव या पापों को नष्ट करने के ध्येय से पुण्यप्राप्ति या आत्मशुद्धि के लिए भी मंगलाचरण किया जाता है । पुण्यप्राप्ति, आत्मशुद्धि के अतिरिक्त मंगलाचरण कै प्रयोजन १० इस प्रकार है -

1. परमपिता परमेश्वर मंगल स्वरूप है । उन परमात्मा को मंगलाचरण में नमोस्तु करने से हमारा उद्देश्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होता है । अर्थात् मंगल स्वरूप मंगल प्रदाता परमात्मा का गुणानुवाद करने से ग्रंथ जैसे शुभकार्य की रचना निर्विघ्न रूप से पूर्ण होती है ।

2. जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हुए मंगलाचरण करना शिष्टाचार का परिपालन भी है । लोक में शिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की यह परम्परा है कि प्रतिदिन परमात्मा का दर्शन, पूजन-भक्ति करते हैं तथा प्रत्येक शुभ कार्य के शुभारम्भ में पूजा इष्टदेव को स्मरण कर उनको नमस्कार कर मंगलाचरण -करते हैँ और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए शिष्टाचार का पालन करते हैं । क्योंकि जिन परमात्मा की कृपा से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय गुण की प्राप्ति होती है । मंगल विधि द्वारा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना शिष्टजनों का कार्य है ।

3. ईश्वर की सत्ता में विश्वास करना मंगलाचरण का द्योतक है । मंगलाचरण करने से नास्तिक मत का खण्डन 'और आस्तिक भाव -का समर्थन होता हैं । मंगलाचरण करने वाले भक्त परमात्मा, पुनर्जन्म, आत्मा, सही, मोक्ष, धर्म आदि को विश्वासपूर्वक जानता है -तथा सद् आचरण करता है वह भक्त आस्तिक कहलाता है । आस्तिक अथवा परीक्षा प्रधानी भक्त सर्वज्ञ शास्त्र, व्रत और जीवतत्त्वों में अस्तित्व बुद्धि रखने को आस्तिक्य कहते हैं । आस्तिक प्रयोजन के बिना भी मानव का परमात्मा में भक्ति का भाव नहीं हो सकता ।

4. नमस्कार 'पूर्वक मंगलाचरण करने से मन पवित्र-निर्मल हो जाता है । जब मनुष्य सर्वज्ञ परमात्मा के श्रेष्ठ गुणों का कीर्तन या चिंतन करता है तब उसमें अहित विचार -दूर होकर या पापवासना का नाश होकर मन में अच्छे विचार तथा उत्साह जागृत होता है जो मन को पवित्र करता है । गुणी महापुरुष के गुणों के चिन्तन या कीर्तन के बिना ह्र्दय की शुद्धि नहीँ हो सकती । आध्यात्मिक एवं लौकिक परोपकारी कार्य को पूर्ण करने के लिए मानसिक शुद्धि आवश्यक है ।

5. भगवान् की भक्ति करते समय उनको नमस्कार करने में आत्मकल्याण की भावना निहित्_है । आत्म-कल्याण के साथ-२ विश्व कल्याण की भावना भी इस नमस्कार सहित भक्ति में समाहित है । जौ व्यक्ति आत्महित की साधना करता है उस व्यक्ति से ही विश्व का कल्याण हो सकता है । इस प्रयोजन की सिद्धि परमेष्ठी की भक्ति के बिना नहीं हो सकती । कारण कि जिस आत्मा ने मुक्ति मार्ग की साधना कर मुक्ति को प्राप्त किया हैं, वह अत्मा ही संसार से मुक्ति का मार्ग दिखा सकता हैं । '

6. परमात्मा' की अर्चना, भक्ति एवं साधना करते समय उनको प्रणाम किया जाता है क्योंकि ऐसा- करने से परमात्मा के .अन्दर विराजमान सद्गुणों की प्राप्ति होती है । परमात्मा अनन्तानन्त गुणों के स्वामी होते हैं । इसलिए उनके गुण हमे भी प्रात हों इस भावना से हम उनको नमस्कार करते हैं ।

7.जो व्यक्ति जिस गुणी पुरुष के समान गुणों को प्राप्त करना चाहता हैं, वह उसी गुणी पुरुष की संगति करता है, उसको आदर्श मानता है, उसको नमस्कार करता है, उसकी प्रशंसा करता है इसलिए परमात्मा के समान श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति उनकी पूजा, वंदना करता है, उनको प्रणाम करके शुभ कार्य का प्रारंभ करते हैं । व्यक्ति को गुण ग्राही बनकर गुणी की पूजन वंदन' अभिवंदन करना चाहिए न कि लोक समान, धन लालसा, विषय भोग आदि के लोभ से । .आचार्य पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरण में लिखते हैं -

8. मोक्ष मार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भू भृताम् ।

9. ज्ञातारं विश्वतत्वानां, वन्दे तद गुण -लब्धये । 

10. अर्थ-जो मोक्ष मार्ग- के नेता, कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाले एवं विश्व -के तत्त्वों को जानने वाले, ऐसे विशेषणों से सुशोभित हितोपदेशी. वीतरागी और सर्वज्ञ भगवान् को उनके श्रेष्ठ गुणों की 'प्राप्ति के लिए मैं उनकी वंदना करता हूँ ।